अदहन अनहद नाद
मेरा बचपन गांव में बीता। उसकी खुशियों का अनहद नाद मैं अभी भी सुनता हूँ। गांव की बहुत सारी यादें हैं जिनको शेयर किया जा सकता है । आज भोजन हेतु भात और दाल बनने की कथा सुनाता हूँ ।
गांव में दाल या भात बटलोही में बनता था। बटलोही सामान्यतया पीतल या कांसा के हुआ करते थे। लकड़ी के चूल्हे पर इसे चढ़ा कर पकाया जाता था। लकड़ी की आग से खाना बनने पर बटलोही की पेंदी में कालिख लग जाती थी! करिखा से बचाव हेतु मिट्टी का लेवा लगाया जाता था। लेवा भी गोरिया माटी का। इस हेतु पहले से ही गोरिया माटी की पिंडी बना कर घर में रख लिया जाता था ताकि दिक्कत नहीं हो लेवा लगाने हेतु। यह गोरिया माटी हमारी कामवाली लाती थी वह भी एक ही जगह से वह था बाला जी का घर। हमारे गांव के ठीक पश्चिम रोड से सटे एक बहुत बड़ा मकान था मिट्टी का। मुझे लगता है बिहार में एकमात्र ही ऐसा मकान होगा जो शुद्ध मिट्टी की दीवाल के बना था और दुतल्ला था । मकान में पंखे लटके रहते थे जिसे बाहर नौकर खींच कर हवा पैदा करता था। इस मकान की भी गज्जब कहानी है पर अभी हम गोरिया माटी पर ही ध्यान दें। तो उन्हीं के मकान के टूटे भाग से गोरिया माटी पूरे गांव के लोग लाते थे। तो हमारे यहां भी आता था।
इसी गोरिया माटी का लेवा लगता था फिर चूल्हे पर बटलोही चढ़ाया जाता था। लकड़ी की आग सुलगाई जाती थी। चूल्हा पर धुंआ निकलने हेतु खीपटे का उचकुन दिया जाता था। खीपटा खपड़े का टुकड़ा हुआ करता था। जलावन की लकड़ी जरना कहलाती थी। जरना भी पूरा सूखा हुआ खन खन होता था नहीं तो मेहराएल जलावन से दिक्कत होती थी।
बटलोही में नाप कर अदहन का पानी डाला जाता था। अदहन का पानी जब खूब गर्म हो जाये यानी खौलने लगे तो कहा जाता था कि अदहन हो गया अब चावल या दाल इसमें डाला जाए। अदहन की एक अलग आवाज होती थी मानो कोई संगीत हो! स्त्रियां अदहन नाद पर तुरंत फुर्ती से चावल या दाल जो धुल कर रखे होते थे उनको बटलोही में डाल देती थीं। इस डालना को चावल मेराना कहते थे । चावल मेराने के पहले चावल के कुछ दाने चूल्हें में जलते आग को अर्पित किया जाता था। अग्नि यानी अगिन देवता को समर्पित! पानी से धुले चावल ही मेराया जाता था। चावल धो कर जो पानी निकलता था वह चरधोइन कहलाता था। क्योंकि चरधोइन में चावल के गुंडे का अंश होता था तो उसे फेंका नहीं जाता था बल्कि गाय,भैंस को पीने हेतु एक घड़े में जमा कर दिया जाता था।
चावल जब मेरा दिया गया है तो समआंच पर चावल पकाया जाता था। समय समय पर करछुल से चावल को चलाया जाता था ताकि एकरस पके। चावल जब डभकने लगता था तो उसे पसाया जाता था। यानी माड़ पसाया जाता था। एक साफ बर्तन में माड़ पसाया जाता था। यह माड़ गर्म गर्म पीने या माड़ भात खाने में जो आनंद होता था वह लिख कर नहीं समझाया जा सकता।माड़ भात सामान्यतया गरीबों का भोजन होता था पर जिसने खाया है उसे पता है कि असली अन्नपूर्णा का आशीर्वाद क्या होता है! भात पसाने हेतु बटलोही पर एक ठकनी डाली जाती थी जो तब काठ की होती थी। यह भात पसाना भी एक कला होती थी नहीं तो नौसिखिया हाथ या पैर ही जला बैठे! ढकनी को एक साफ सूती कपड़े से पकड़ माड़ पसाया जाता था। यह साफ कपड़ा भतपसौना होता था।
भोजन जब बन जाये तो भात, दाल ,तरकारी मिला कर अगिन देवता को जीमा कर घर के कुटुंब जीमते थे। जीमने हेतु चौका पूरा होता था। गोरिया मिट्टी से ही धरती को एक पोतन से लीप चौका लगता था। इस चौके पर आसन पर बैठ गर्म गर्म भोजन जिसे माँ ,दादी बड़े मनुहार से खिलाती थी उसका आनंद अलौकिक था। यह सब अदहन के अनहद नाद का ही परिणाम था जिसके कारण जीवन वीणा के तार झंकृत होते रहे! कृतज्ञ हूँ !
माँ अन्नपूर्णा को सादर प्रणाम!
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
2 जनवरी ,2021
पटना
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(तस्वीर एक फेसबुक मित्र के वॉल से साभार!)