बांस विरुदावली
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“कांच ही बांस के बहँगिया , बहँगी लचकत जाय…!” लोक पर्व , छठ का यह गीत किसने नहीं सुना होगा ! लोकआस्था के इस महापर्व में बांस की बहँगी से छठ पूजा का प्रसाद छठ घाट जा रहा है जिसका उल्लेख इस लोक गीत में किया जा रहा है। पर बांस केवल पूजा में ही व्यवहार नहीं होता वरन यह आमजन हो या विशेष जन सभी के जीवन में रचा बसा है ।
बांस बरेली में खूब होता है या नहीं , यह मुझे नहीं मालूम पर “उल्टे बांस बरेली को” मुहावरा खूब प्रचलित है ! अपने पटना में भी बांस घाट है जहाँ जाने पर जीवन के सत्य से साक्षात्कार हो जाता है !
आम प्रचलित धारणा है कि बांस बंश का प्रतीक है । तो गांव में स्त्रियां बांस के दतुअन से दांत नहीं साफ करती वो कोई दूसरा दतुअन व्यवहार करती हैं । बांस चूंकि बढ़ने में शानदार होता है तो इसे बंश से जोड़ने की प्रवृत्ति पैदा हुई होगी , ऐसा सोचता हूँ ? गांव में अभी भी रविवार और मंगलवार को लोग बांस नहीं काटते ।
बांस के पत्तों का चारा मवेशी बड़े प्यार से खाते हैं तो मनुष्य इसकी सब्जी, अचार आदि भी बनाता है । बांस के फूल को निकलने को मनहूस समझा जाता है ! पर इसके चावल को खाया भी जाता है । चूहे इसके दाने बड़े चाव से खाते हैं और तब उनकी बढ़वार तेजी से होती है । पहले चूहे प्लेग भी लाते थे तो लोग बांस के फूलने को देख डर जाते थे ।
बांस ग्रामीण आर्थिक सबलीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । यह रोजगार का मुख्य कारक है । इससे क्या नहीं बनाया जाता ? मूल रूप से बांस घर के निर्माण में प्रयुक्त होता है । पूर्वी भारत में अभी भी इससे बने घर देखे जा सकते हैं । बिहार के पूर्वांचल में भी हम बांस का बहुतायत प्रयोग देख सकते हैं । बांस से दौरी , टोकरी , सूप, डगरा जैसे घरेलू उपकरण बनते देखते हैं जिसके बिना हमारा जीवन अधूरा रह सकता है ।
बांस से सोफा, कुर्सी , अलमीरा , रैक , बैलगाड़ी आदि भी बनते हैं । हस्तशिल्प में भी बांस का बहुतायत उपयोग होता है जिसका मार्केट विदेश तक है । इससे बने हस्तशिल्प नयनाभिराम होते हैं । कुछ घरेलु उपकरण या बर्तन भी बांस के बनते हैं जिसमें मसाला , नमक आदि अभी भी लोग रखते हैं ।
बांस से धागे भी बन रहे हैं और इससे बने कपड़े बहुत ही सुंदर और सौम्य होते हैं ।
बांस से खेलकूद का सामान भी बनता है तो सुंदर सा हैट भी । “बांसकूद” शब्द इसी बांस के कारण बना है । बांस से ही धनुष ,लाठी और भाले का डंडा भी बनाया जाता है । बांस से कृष्ण जी की बाँसुरी बनी है जिसकी मधुर धुन पर राधा जी और गोपियां सुधबुध खो देती थीं !
बांस अद्भुत पादप है ! यह दूब पादप वर्ग का है । इसकी बहुत सी प्रजातियां देखने को मिलती है । कइएक रंगों में यह मिलता है । लाल, पीला, हरा आदि । मनोरम रूपों और आकार में भी । मोटा , बहुत मोटा , पतला , एकदम कमनीय काया वाला भी मानो कोई छरहरी हरे वसन में सावन में झूम रही है ! मानो हिलोरे मार झुलुआ झूल रही हो !
अपने बिहार में पूर्णिया, अररिया , किशनगंज आदि जिलों में अभी भी बांस के बागान खूब हैं । खुद मेरे पास धमदाहा में अभी भी दो एकड़ में बांस का बगीचा है । हालांकि बांस का बगीचा नहीं होता , बाँसबाड़ी होती है! बांस बहुपयोगी है ! बांस रहना चाहिए ,नहीं तो बाँसुरी कैसे बजेगी क्योंकि कोई कोई मुझे डराता रहता है कि न रहे बांस न बाजे बाँसुरी ! तो बांस रहना चाहिए !
बांस का राजनैतिक उपयोग भी है । लठ में तेल पिलावन रैली इसी बांस के लट्ठ के साथ करने की कही गयी थी । तो यह बहुत काम की चीज है । इसकी खटिया भी बनती है जो हल्की होती है जिसे जब चाहिए जाड़े में सरका लीजिये, जाड़ा खत्म ! कि सरकाई लो खटिया जाड़ा लगे !
बांस से ही मड़वाँ बनता है जिसके नीचे दो दिल मिलते हैं । सात जन्म साथ रहने की कसम खाते हैं । शादी में डाला दउरा इसी बांस का बनता है और खाजा, लड्डू,बुकवा आदि का दउरा भी । जिसे लड़की की मां गिन गिन मुदित होती रहती है और जिसमें से चुपके से बुकवा निकाल दूल्हे की सालियां मुँह फुलाये घूमती रहती हैं । कोहबर चित्र भी बिना बांस को उकेरे नहीं बनते !
बांस ही है जो बुढापा का सहारा होता है और बांस ही है जो अंतिम समय मंजिल पहुंचा देता है !
(और इस आलेख को लिखने का ज्ञान भी इसी बांस की महिमा से प्राप्त हुआ है क्योंकि बचपन में गुरु जी इसी बांस की करची से हम बच्चों को प्यार कर ज्ञानवर्धन करते थे । )?
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डॉ. शंभु कुमार सिंह
पटना
11 जुलाई , 19
(5:45 शाम )
© डॉ. शंभु कुमार सिंह