यादों की पिटारी
(एक)
कुछ बातें भुलाए नहीं भूलती। तो उन्हें यादों की पिटारी में रख देता हूँ।फिर समय समय पर पिटारी से निकाल धूप दिखाते रहता हूँ। आज कुछ यादों को यूं ही उलट पलट रहा था तो ये बातें खूब याद आयी ।
मेरे जन्म के बाद मां बीमार पड़ गयी थी। उसे लकवा हो गया था। खुद चल नहीं पाती थी। मां का जीवन बहुत कष्टदायक हो गया था। इस कष्टमय जीवन में भी मां को अपने से ज्यादा मेरी चिंता थी! मैं करीब छह महीने का रहा होऊंगा तब। पता नहीं पिछले जनम कौन सा पाप किया था कि जन्म लेते ही ईश्वर ने मुझे मां की गोद से उतार दिया था बल्कि मां के दूध से भी दूर कर दिया था। मैं दिन भर रोता रहता था। मेरी बड़ी बहन मुझसे मात्र छह साथ साल बड़ी थी। वह मुझे क्या संभाल पाती? दूसरी तीन साल बड़ी। वह जब मिले दो तीन थप्पड़ लगा दे। पर बड़ी बहन केलिये यह एक दुखद स्थिति थी क्योंकि वह समझदार थी और मेरा रोना उसे भी रुलाता था। दिन भर गोद में तो रख नहीं सकती थी तो बाबूजी गांव से ही एक लड़का को ले आये वह बलिराम शरण था। गांव के ही सिरजु महतो का दूसरा बेटा। अब बलिराम की गोद में मैं दिन भर रहता था। वही गाय का दूध पिलाते या चावल दाल आदि खिलाते ।
बाबूजी जब मां को किसी अच्छे डॉक्टर से दिखलाने पटना लाये तो बलिराम शरण भी आये पटना। मुझे दिन भर खेलाते रहते। खाना बनाने हेतु कामत पर से एक आदमी आया वह शिबू मुनि था। बलिराम मेरी देखरेख तो करते ही थे पर कुपोषित मैं बहुत रोता था और बीमार भी पड़ गया। मां कुछ नहीं बोलती थी बस मुझे देखती टुक टुक रोती रहती थी। वह इसके अलावा कर भी क्या सकती थी?
बाबूजी अपने माता पिता के इकलौते बेटा थे। मां के बीमार होते कुछ लोग दूसरे अभियान में लग गए। लोगों ने दवाब बनाना शुरू कर दिया कि दूसरी शादी कर लो। यह पत्नी तो अब मरी कि तब मरी ,इसका क्या चिंता करना? कुछ वैवाहिक प्रस्ताव भी आये। पर मेरी दादी और बाबूजी के द्वारा बहुत बुरी तरह ये लोग डांट फटकार सुन शांत हो गए। बाबूजी न केवल एक अच्छे पिता थे वरन वह बहुत संवेदनशील पति भी थे। वे बोले कि जहाँ तक संभव होगा इनकी चिकित्सा करवाई जाएगी और इस हेतु उन्होंने क्या नहीं किया! तो पटना आने के बाद पॉपुलर नर्सिंग होम में मां को भर्ती करवाया गया और वहीं मां की चिकित्सा होने लगी। एक आवास भी लिया गया जहाँ खाने पीने की सारी व्यवस्था की गई। रसोइया के रूप में शिबू तो थे ही।
बाबूजी कांग्रेस पार्टी की प्रादेशिक कमिटी के सदस्य थे। कई एक मंत्री संतरी से उनकी जानपहचान थी। तब के हेल्थ मिनिस्टर से भी जो बीरचन्द पटेल थे। बाबूजी एक शाम यूं ही उनसे मिलने चले गए। हाल चाल पूछने के बाद पटेल साहब ने पूछा कि पटना किसी काम से आये हुए हैं क्या? बाबूजी ने सारी बातें कह दी। इतना सुनते ही पटेल साहब गुस्सा गए । बोले आप बिहार के हेल्थ मिनिस्टर के सामने बैठे हैं जो आपका मित्र भी है और मेरे पूछने पर बताते हैं कि आपकी पत्नी बीमार है?! यह तो बहुत बुरा किये सीताराम बाबू आप! बाबूजी क्या कहते, उनकी एक बुरी आदत थी कि कितना भी बड़ा कष्ट क्यों न हो खुद झेलते थे ,दूसरे को कहते नहीं थे। बहुत कष्ट से पले थे तो व्यक्तित्व एकदम अंतर्मुखी हो गया था। उस दिन मंत्री महोदय ने टेबल पर पड़े एक अखबार ,संभवतः इंडियन नेशन के एक कोना को फाड़ उस पर कुछ लिखे और बाबूजी को बोले कि कल सबेरे आपका पहला काम यही होगा कि पी एम सी एच के सुपरिटेंडेंट से मिल यह पुर्जा दे देना है। यही हुआ भी। पूरे हॉस्पीटल में लहर दौड़ गयी कि मंत्री जी की कोई रिश्तेदार हैं उनको एडमिट करना है। पर दिक्कत यह थी कोई भी बेड खाली नहीं था। अब क्या किया जाए?
बहुत सोच विचार के बाद वार्ड में ही बेड के बीच एक नया बेड लगाया गया । यह बेड 8 और 9 के बीच डाला गया था तो इसकी नम्बरिंग की गई साढ़े आठ । मां प्राइवेट क्लीनिक से पी एम सी एच आ गयी। रोज एक बार सुपरिटेंडेंट मां को देखने आते। मां फेमस हो गयी थी साढ़े आठ नम्बर की पेशेंट के नाम से। पटेल साहब नियमित ट्रीटमेंट का फीडबैक लेते रहे। डॉक्टरों की बेहतर चिकित्सा के कारण मां व्हील चेयर पर नहीं वरन अपने पावों पर घर लौटी और इस बार मैं बलिराम शरण की गोद में नहीं बल्कि मां की गोद में किलक रहा था !
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
8 जून, 21
पटना
(क्रमशः …)
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(तस्वीर में मां और बाबूजी । मिथिला स्टूडियो,समस्तीपुर,1968)