वैशाली के गराही ग्राम पंचायत और उसके आसपास का जल ऑडिट
वैशाली जिलान्तर्गत गराही ग्राम पंचायत पड़ता है जिसमें मुकुंदपुर गराही ,महिउद्दीनपुर गराही, कमालपुर, चकमलही जो दरअसल चकबाजो मलाही है, बंगरा, मेथुरा पुर और धंधुआ का लंका टोला मुख्यतः आता है। यहाँ पहले पीने हेतु पानी केलिये केवल कुओं का ही उपयोग किया जाता था। गराही छोटा सा ही गांव है बावजूद इसके गांव में पर्याप्त कुएं थे । अभी भी हैं पर अधिकांश भरे जा चुके हैं, कुछ मिट्टी से तो कुछ कचरों से।
गराही के ख्यात कुओं में शिवधारी सिंह का कुआं बहुत ही ख्यात था। इसका पानी पीने में मीठा और साफ होता था। हमारे बचपन के न जाने कितने स्नान इस कुएं पर हुए हैं। इस कुएं की खासियत यह थी कि यह पक्का कुआं था जिसके चारों ओर सीमेंटेड चबूतरा बना हुआ था जो गोलाकार था और इसके पूर्व में एक छोटा सा पुच्छल चबूतरा था जिसका प्रयोग तब भी नहीं के बराबर होता था। मुख्य चबूतरे पर ही लोग स्नान आदि करते थे। इस कुएं के पानी से दाल बहुत ही सहजता से सिझती थी। तो यह कुआं एक महत्वपूर्ण कुआं था। दूसरा कुआं बिंदेश्वरी सिंह का कुआं था। यह कुआं भी पक्का और इसका पानी भी साफ होता था पर इसके पानी से दाल पकाने में दिक्कत थी। तीसरा कुआं रमाशंकर सिंह का था। जो पक्का नहीं था और इसके चारों तरफ मुंडेर भी नहीं बना था जिससे हमेशा खतरा बना रहता था इसमें गिरने का। पानी भी साफ नहीं और बहुत खारा। दाल नहीं गले इस पानी में। चौथा कुआं रामविलास सिंह का था। जो उनके आंगन में बना हुआ है। इसका पानी बहुत ही साफ और मीठा । पर इस परिवार से कुछ लोगों का छत्तीस का रिश्ता रहने के कारण पानी आम उपयोग में नहीं हो पाता था। हालांकि कुछ दिन हमलोग यहाँ से पानी लेते रहे थे।
पांचवा कुआं पारसनाथ सिंह का । यह भी पक्का कुआं है। पानी मीठा ही। छठा कुआं जुगल चौधरी का था। यह कुआं भी पक्का नहीं था और इसमें भी गिरने का डर हमेशा रहा है। बल्कि एक दो घटनाओं का साक्षी यह कुआं रहा है।
1963 में जब सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने गराही के सामाजिक कार्यकर्ता और कांग्रेस के डेलीगेट सीताराम सिंह के आमंत्रण पर गराही की यात्रा की तो उनके प्रयास से गराही के स्कूल में एक हैंड पंप लगा जो बाद में इसीलिए खराब रहा कि इसके नट बोल्ट लगाने या वाल्व आदि का कौन खर्च करे ,इसकी कोई व्यवस्था नहीं थी तो यह कुछ दिन पानी देने के बाद खराब ही रहा। पर यह पूरे इलाके का पहला चापाकल था। जिसके पार्ट्स भी निकट बाजार में उपलब्ध नहीं थे । उसके लिए हाजीपुर ही जाना पड़ता था। परिणम स्वरूप यह चापाकल लगने के साथ ही खराब रहा। 1970 के आसपास सीताराम सिंह के घर भी एक चापाकल लगा जिसका पानी साफ नहीं आता था पर यह पीने में मीठा था। इससे दाल भी गल कर पकती थी।
बाद में 1993 में भी इन्होंने एक और चापाकल लगाया ।पहला वाला चापाकल तब पूरे गांव या इलाके का पहला चापाकल था। पूरा गांव लगभग यहीं से पानी लेता था।
फिर तो गांव में और चापाकल लगे । हरिबल्लभ सिंह के यहाँ भी चापाकल लगा। फिर बालेश्वर सिंह के आंगन भी । फिर तो लगभग सभी के घर चापाकल लगने लगे और कुओं की खोज शादी बियाह में पानी कटाई के लिए ही होने लगी। रामशंकर सिंह के कुएं को भरने की कोशिश की गई जो तब तक एक योजना के तहत पक्का कर दिया गया था। इसी तरह सभी कुएं उपेक्षित होते गए।
इसी गांव एक बावली थी। जिसमें सावन भादो खूब पानी भरा रहता था और दादुर मधुर संगीत के साथ टर्राते रहते थे। वह अभी भाँट और भांग का जंगल बना हुआ है। शिवधारी सिंह के कुआं के सटे भी एक गबड़ा था जिसमें भी पानी भरा रहता था। जो अब भर चुका है।
इसी गांव के पश्चिम रोड से सटे ही चार कुएं थे। ये सभी एक कायस्थ परिवार ,बाला जी के घर के परिसर में थे। एक कुआं तो रोड से ठीक सटे पश्चिम था जो पक्का था और उसका मुंडेर बहुत ऊंचा था । क्योंकि यह रोड पर था तो राहगीरों केलिये अमृत समान था। पर इस कुएं पर ही अतिक्रमण कर किसीने एक दुकान खोल लिया। बालाजी के परिसर में दरवाजे पर मंदिर के पश्चिम एक सुंदर कुआं था। जिसका चबूतरा बहुत ही खूबसूरत था। पानी भी बहुत मीठा और साफ। एक कुआं बालाजी के घर के आंगन में महिलाओं हेतु था। एक कुआं उनके परिसर के पूर्व दक्षिण कोने पर जो कच्चा था और जिसमें तैरते रंगबिरंगे मेढ़क और मछलियां हम बच्चों के लिए कुतूहल के विषय थे। वह कच्चा कुआं तो बहुत पहले ही भर दिया गया। पर जो पक्के कुएं थे ,जिन्होंने अपने मीठे पानी से हमारी प्यास बुझाई ,आज अपनी किस्मत पर रो रहे हैं। अधिकांश का अस्तित्व नहीं है और जो हैं वह कूड़ेदान बने हुए हैं।
एक तालाब भी था इस ग्राम पंचायत में जिसे हम कमाल पुर की पोखरी कहते थे। दशहरा पूजा के बाद कलश विसर्जन हेतु हम कई बार इस पोखर पर गए हैं। बचपन में एक दो बार बाबूजी के गमछा से यहाँ मछली भी मारे हैं। जिसमें हमें मछली नहीं बेंगची मिलती थी पर हम उन्हें मछली समझ ही बहुत खुश होते थे। हालांकि इस मछलीमार कार्यक्रम का उपसंहार घर पर हमारी भरपूर कुटाई से ही सम्पन्न होता था। यह पोखरी भी दलितों के द्वारा अतिक्रमित हो गया है और उनपर घर, बथान आदि बना दिये गए हैं। यह भी कचरों का अड्डा बना हुआ है।
हमारे गांव में पानी की किल्लत कभी नहीं रही। मीठे पानी का आनंद हम हमेशा लेते रहे। अब नल जल योजना भी आ गयी है। कुछ लोग निजी पानी टंकी भी लगा लिए हैं। झरने के नीचे गुनगुनाते नहाते हैं लोग। पर पानी हमसे दूर होते जा रहा है। हम इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं। एक वक्त आएगा कि हम धरती के नीचे से कितना भी कोशिश करेंगे ,पानी नहीं निकाल सकेंगे ! यह कितना भयावह होगा उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। कुआं या पोखर या कोई गड्ढा ही भूगर्भीय जल को रिचार्ज करते हैं। ये रेन वाटर हार्वेस्टिंग भी करते थे। पर अब यही मरणासन्न हैं। यह एक बहुत ही बुरा संकेत है। इन संकेतों को समझिए अन्यथा बुरे परिणाम को भुगतने हेतु तैयार रहिए !
जैसी आपकी मर्जी !?
(पहला पार्ट)
क्रमशः…..(1)
(आप भी अपने गांव की जलस्थिति की ऑडिट रिपोर्ट बना शेयर कर सकते हैं। यह बहुत जरूरी भी है ताकि हम जान सकें कि हम कहाँ तक अपने कुओं और पोखरों को बचा कर रखे हुए हैं?)
प्रकृति मित्र
बोले बिहार
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