बिहार की राजनीति में दलित
बिहार की राजनीति में दलित कभी हासिये पर नहीं रहे। कुछ लोगों की यह शिकायत है कि बिहार में सवर्ण राजनीति ही होती रही है उनको बिहार के राजनैतिक इतिहास को ठीक से टटोलना होगा। स्वतन्त्रता की लड़ाई में भी दलितों की बहुत ही सकारात्मक और गम्भीर भूमिका थी और सत्ता में आने के बाद भी। कांग्रेस राज में बहुत से दलित राजनेता हुए जिन्होंने समाज को एक दिशा दी।
उनमें बहुत से महत्वपूर्ण नेता हुए हैं जिनके नाम का उल्लेख किया जा सकता है पर जगजीवन राम का नाम उनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जगजीवन राम आजादी की लड़ाई में सक्रिय रूप से हिस्सा लिए और कांग्रेस राज में सत्ता में महत्वपूर्ण पदों पर रहे । ये किस जाति से आते हैं यह सर्वविदित है। बाद में जब जगजीवन राम कांग्रेस से विरोध किये या यूं कहें कि इंदिरा गांधी से इनका मोहभंग हुआ और जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो उसमें भारत के उप प्रधानमंत्री बने। इनकी पुत्री ,मीरा कुमार प्रशासनिक सेवा में भी रही हैं और भारत के लोकसभा की स्पीकर भी। भारत के राष्ट्रपति के पद हेतु कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार भी।
कांग्रेस में कई दलित राजनेता हुए जिनमें डुमर लाल बैठा जैसे नाम भी महत्वपूर्ण हैं। उस समय विधानपरिषद की सभापति भी एक दलित महिला नेत्री, राजेश्वरी सरोज दास बनी थी जिनके आवास पर ही उनकी दत्तक पुत्री श्वेत निशा को जहर दे मार डाला गया था।
बिहार में पचास साल से ज्यादा बहुत ही प्रभावी ढंग से दलित राजनीति के पुरोधा रामविलास पासवान हुए जिनके नाम भारतीय राजनीति में कई एक कीर्तिमान हैं। वे भारत सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालयों के मंत्री रहे और लगभग हमेशा ही सत्ता में रहे । कितने ही दलों के प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल के सदस्य रहे। उनके परिवार के कई सदस्य भाई, भतीजा, पुत्र भी मंत्री और विभिन्न सदनों के सदस्य बने बल्कि कुछ अभी भी हैं।
बिहार में मेरी जानकारी के अनुसार तीन तीन मुख्यमंत्री दलित समुदाय से हुए जिनमें भोला पासवान शास्त्री , राम सुंदर दास और जीतन राम मांझी हुए। ये अपने समय के बहुत ही प्रभावी नेता हुए जिनकी तूती बोलती थी। अन्य नेताओं की भी चर्चा हो सकती है पर यहाँ समय और जगह को देखते यह अभी अनुपयुक्त ही होगा।
अब प्रश्न यह उठता है कि इतने प्रभावी नेतृत्व होने के बावजूद क्या दलित समुदाय में कोई उल्लेखनीय सामाजिक , शैक्षणिक ,आर्थिक और राजनैतिक परिवर्तन परिलक्षित हुआ या नहीं? उनके बीच रोजगार की स्थिति सुधरी या नहीं? उनकी सामाजिक हैसियत बढ़ी या वैसी की वैसी ही रही? क्या राजनीति में दलित समुदाय से नेतृत्व बढ़ा या एक ही परिवार की विरासत बनी रह गयी ,यह सब विचारणीय प्रश्न हैं?
दलित राजनीति में जो राजनेता आरक्षित सीट से जन प्रतिनिधि बनते हैं तो उनके क्षेत्र के दलितों की स्थिति और सामान्य सीटों के दलितों की स्थिति में क्या तुलनात्मक अंतर होता है? इसे भी देखना उचित होगा। कुछ तो चेंज होना ही चाहिए ? या ऐसे ही सुरक्षित क्षेत्र या सीट बना दिया जाता है? यह सब कुछ ज्वलंत प्रश्न हैं जिनपर हर प्रबुद्ध नागरिकों को सोचना चाहिए ,खासकर दलितों को तो जरूर ही । यह उनके लिए आत्मचिंतन का भी मुद्दा होना चाहिए!
अगली बार दलित राजनीति के आर्थिक ,सामाजिक और राजनैतिक इम्पैक्ट पर चर्चा तब तक केलिये नमस्कार !
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बिहारमें दलित राजनीति
Dr. Shambhu Kumar Singh
3 April, 21
Patna
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