अपना अपना चांद
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शरद पूर्णिमा का
चांद
कवि की कल्पना
को लगाता है आग
खो जाता है कवि
प्रिया की यादों में
चांद में दिखता है
उसे उसका
सुंदर
मादक मुखड़ा
व्यापारी देख
सोचता है
वहाँ कितने का
एक एकड़ पड़ेगा
चांद
मॉल या मल्टीप्लेक्स
बनाने पर
क्या होगा
नफा नुकसान
देख उसे
भूखा मंगरू
सोचता है
रोटी ऐसी ही होती
है
गोल गोल
जिसे खा
पेट की आग को
मिलती है
शीतलता
चांद एक ही है
पर
सबका है
अपना
अपना
चांद !
©लेखन: डॉ. शंभु कुमार सिंह
पटना /3 नवम्बर ,20
??
(तस्वीर : Rekha Singh )