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मेरे बाबूजी

by Dr Shambhu Kumar Singh

मेरे बाबू जी

मेरे बाबूजी को हरी सब्जी बड़ी प्रिय थी । पेठिया से बाबूजी खुद लाते थे जब हमलोग छोटे थे । भिन्न भिन्न तरह की सब्जियां । कुछ सब्जियां तो हाजीपुर गुदरी बाजार से आ जाती थी जब बाबूजी वहाँ जाते थे । तब हाजीपुर भी जाना बहुत दुरूह होता था । पर हम सीजन के पूर्व भी अच्छी सब्जियां खा लिया करते थे ।
बाबूजी को कुनरी से बड़ी चिढ़ थी । बोलते यह एकदम बेकार सब्जी है । हमलोग भी कम ही खाते पर उसकी भुजिया बड़ी अच्छी लगे । गाँव के भोजभात में कुनरी का अचार भी परोसा जाता था जो मुझे अच्छा लगता था । फ़िल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे में मेस में कुनरी की रसदार सब्जी दे दे । मैं तो उसे देख कर ही हरक गया । लेकिन मजबूरन खाना पड़े । कुनरी की भुजिया चल सकती है पर यह रसदार नहीं । जब तक रहा पुणे कुनरी से ऊब गया ।
पर भुजिया पसंद करता ही था । गाँव में जब मैं सब्जी लाने जाता तो लौटने पर बाबूजी पूछते कि क्या क्या लाये हो ? मैं बोलता कि भिंडी नेनुआ, कद्दू, परवल,करेला, पालक आदि लिया हूँ । और बाबूजी ,कुनरी भी ले लिया हूँ ! बाबूजी फिर मुझपर गुस्साते , अरे तुम पढ़ा लिखा मूर्ख है । कुनरी बुद्धि हर लेती है । मैं शरारती हँसी हँसता । बाबूजी भी नकली गुस्सा कर रहे होते थे । हम दोनों एक दूसरे को चिढ़ा रहे थे ,यह दोनों समझ रहे थे क्योंकि सब्जी के थैले में बहुत खोजने पर भी कुनरी नहीं मिलती थी । क्योंकि मैं लेता ही नहीं था । यह खेल खूब हम खेलते रहे । बाबूजी भी मुझे जानबूझ कर खरीखोटी सुनाते रहे ।
पर यह खेल एक दिन खत्म हो गया । इस खेल का एक खिलाड़ी खो गया । वह चला गया बहुत दूर । जहाँ उसे कुनरी की कोई चिंता नहीं थी । खैर ,दिल एकदम टूट गया । सब्जी बाजार बाद में भी जाता रहा । कुनरी वाला दुकानदार बोलता बाबू ,ले लो ,सस्ता है । मैं थोड़ी देर के लिए ठिठकता जरूर था उसकी दुकान के आगे । फिर बिना खरीदे आगे बढ़ जाता । बाबूजी के जाने के बाद करीब दस बारह बर्ष तक कुनरी नहीं लाया । मन ही टूट गया था । क्या लें ?
पर एक दिन गजब हो गया ! एकदिन दोपहर को खाना खाने बैठा तो देखा थाली में कुनरी की भुजिया है । मैं अकचकाया ,यह कहाँ से आ गयी ,कुनरी ? मैं तो कभी लाया नहीं ? पता करने पर मालूम हुआ कि ऑनलाइन बिग बास्केट से मंगवाए हैं श्रीमती जी ने । बेटी की फरमाइश थी । अब ? मैं तो खाना ही छोड़ दिया था । पर उस दिन खाया ,अनमने ही ।
फिर जब बाजार जाता हूँ बेटी बोलती है पापा, कुनरी जरूर लीजिएगा ,उसकी भुजिया ठीक लगती है । अब क्या करें ? बाबूजी नहीं भी हैं पर रहते हमेशा तो साथ ही हैं ! अभी खरीदूंगा तो बोलेंगे वो कि देखो ,मेरे जाते ही शंभु बदल गया ! फिर छोटी बेटी की फरमाइश ! बाबूजी की दुलारी पोती खड़ी है सामने ? अजीब धर्मसंकट है ? बाजार में हूँ । कुनरी बेचने वाला दुकानदार बुला रहा है ,बीस का किलो ,ले लो बाबू । मैं उस की दुकान के आगे खड़ा हो जाता हूँ । फिर ऊपर देखता हूँ ,क्या बाबूजी ,ले लूँ ? यह पूछने के पहले ही बाबूजी वही चिरपरिचित अंदाज में बोलते हैं ,तुम सच में पढ़ा लिखा मूर्ख है रे शंभु , अब बेटी बोली है और नहीं ले जाओगे तो तुम क्या समझते हो, मैं बहुत खुश हो जाऊंगा ? ले लो बेटा ! मैं सब्जी का थैला लिए घर आता हूँ , बेटी पूछती है ,पापा कुनरी लाये हैं न ? मेरे मुस्कुराते देख बेटी खुश हो जाती है और देख रहा हूँ ,बाबूजी भी मुस्कुरा रहे हैं ! आई मिस यू बाबूजी !
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
7 जून ,2020
पटना

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