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माता पिता

by Dr Shambhu Kumar Singh

माता_पिता


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ज़िंदगी का अब उतरार्द्ध शुरु हो चुका है। आज इस उम्र में भी अगर कोई मुझे बहुत शिद्दत से याद आते हैं तो वो मेरे मां बाबूजी हैं। मैं सोचता हूं , माता पिता साक्षात ईश्वररुप हैं। ईश्वर को पुकारो तो उनके आने में देरी भी हो सकती पर माता पिता को पुकारो तो थोड़ी सी भी देरी नहीं होती।
न केवल मानवयोनि वरन अन्य जीवजंतुओं में माता पिता निस्वार्थ अपनी संतानों केलिए जीवन अर्पित कर देते हैं। खूंखार से खूंखार जानवर भी अपने बच्चों का निर्लोभ पालन करते हैं। कभी चिड़ियों, पशुओं आदि को बच्चों को पालते हुए देखिए, कितने श्रमसाध्य कार्य होता है उनका पर बिल्कुल निस्वार्थ। मानव तो कुछ स्वार्थ भी पालते हैं पर वे नहीं।
मैं सोचता हूं ये जीव जंतु जब अपने बच्चों को इतना प्यार करते हैं तो मानव माता पिता के प्यार पर कोई संदेह नहीं। रेयर ही होगा जिसने अपनी संतान को त्याग दिया हो।
मुझे याद आता है जब मैं हॉस्टल केलिए जाता था तो फूट फूट कर रोता था। पढ़ने या हॉस्टल की अनुशासित ज़िंदगी के डर से नहीं वरन मां बाबूजी से दूर होना ही गवारा नहीं होता था। मेरे बचपन का यह एक बहुत ही बड़ा दुःस्वप्न था हॉस्टल जाना। मेरे मन मस्तिष्क से वो यादें जाती ही नहीं।
मैं अपने मां बाबूजी से बहुत ही जुड़ा हुआ था। यह मेरी अगर कहें तो सबसे बड़ी ताकत थी या कहें तो बहुत बड़ी कमजोरी भी। बाबूजी तो मेरे लिये दोस्त समान थे। दिव्य व्यक्तित्व, मेरे एकमात्र आदर्श। वे बहुत सफल व्यक्ति नहीं थे बल्कि कहीं कहीं बुरी तरह हारे हुए व्यक्ति थे पर मेरे हीरो थे। जीवन में खूब कामना भी उनका ध्येय नहीं था पर मेरे लिए वो कुबेर की तरह थे। अपनी अपनी भावना है। नहीं तो आज बहुतों केलिए माता पिता खलनायक लगते हैं। बच्चें उनसे पूछते हैं कि आपने क्या किया। वैसे बच्चे भी पूछते हैं जो खुद माता पिता पर ही आश्रित होते हैं। यह गलत है।
ऐसी बात नहीं है कि मैं अपने पिता से लड़ा नहीं। खूब लड़ाई होती थी। पर दिल में कभी खटास नहीं आई। बाबूजी तो मुझे हाल तक पीट देते थे । पर जो प्यार दिए और त्याग किए उसके सामने यह कुछ भी नहीं। मेरे लिए तो मेरे माता पिता बहुत कष्ट सहे। मैं ही उनके लिए कभी कुछ नहीं कर सका। पर सन्तोष यह है कि उनके अंतिम दिनों तक भी उनके पैर दबा दिया करता था। इतना ही।
मुझे जब कभी कोई दुख होता है तो सोचता हूं कभी न कभी मैंने अपने माता पिता के दिल को दुखाया होगा जिसका फल मुझे मिल रहा है। हालांकि मेरे मां बाबूजी कभी कोई कटु शब्द मुझे नहीं बोले। पर कभी दिल तो दुखा ही होगा ! यह तो सत्य है कि माता पिता के प्रति किए सेवा का प्रतिदान इसी जीवन में मिलता है। एक हाथ से दो तो दूसरे हाथ से लो।
मां को ब्रेन हैमरेज हुआ था। उसे पता लग गया था कि अब जाने का समय आ गया है। भगवान को याद की। एक विदा गीत गाई। मैं नहीं था तब वहां। पटना में था। मेरी बड़ी बहन, विमल दीदी साथ थी। उसे बोली तुम अपने भाई का केयर करना, सबसे बड़ी हो। अपना और परिवार का भी ख्याल रखना। बहू केलिए होली हेतु साड़ी खरीदी हूं, उसे भी दे देना। शंभु को पैसों की दिक्कत रहती है , आलमारी में कुछ रखा हुआ है, उसे शंभु को दे देना। और महायात्रा पर चल दी मां। तो ऐसे होते हैं माता पिता !
दूर जाते जाते जाते भी बच्चों की चिंता !
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डॉ. शंभु कुमार सिंह
16 अक्टूबर,24
पटना
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