प्रेम,विवाह और सेक्स
प्रेम बहुत ही गूढ़ शब्द है । अबूझ भाव भी । पोथी पढ़ी पढ़ी नहीं समझा जा सकता । और न किनारे बैठ डूबने से डरते रहने से ।इसे परिभाषित करना भी बड़ा ही कठिन है । तो क्या है प्रेम ? मैं समझता हूँ प्रेम समर्पण है ,बलिदान है । त्याग भी । प्रेम के जितने भी रिश्ते या समीकरण है इसमें आ जाते हैं । माँ का प्यार ,देश से प्रेम,बेटी से प्यार ,पिता का दुलार ,महबूबा का इकरार सब प्रेम का ही रूप है । प्रेम में सेक्स जरुरी नहीं । प्रेम दैहिक से परे है ।
विवाह प्रेम नहीं है । यह एक व्यवस्था है । एक समझौता भी । समाजशास्त्रीय दृष्टि से एक संस्था । पर विवाह में प्रेम जरुरी है । सेक्स भी । यह सृष्टि की अनवरतता हेतु जरुरी है । हालांकि जब विवाह नहीं था तब भी सृष्टि चल रही थी । अधिकांश प्रेमविवाह सफल नहीं हो पाते हैं क्योंकि एक रूमानी दुनियां से वास्तविक दुनियां में आना संभव नहीं हो पाता है और विवाह टूटने लगता है ।अच्छा हो कि विवाह के बाद ही प्रेम करें ।
सेक्स दो विपरीत लिंगियों के बीच का शारीरिक सम्बन्ध है । यह बिना प्रेम या विवाह का भी हो जाता है । यह पूरी तरह से एक जैव वैज्ञानिक क्रिया है । जीव जगत में इसकी जरुरत सृष्टि की अनवरतता हेतु है । चूँकि मानव जाति अन्य जीवों से अलग है तो उसने सेक्स के संबंधों को नैतिकता से मर्यादित किया है । हम पशुओं सा सेक्स व्यवहार नहीं कर सकते । इसमें भावनात्मक आकर्षण भी जरुरी है । सेक्स में हम प्रेम भी देख सकते हैं और विवाह के तत्व भी ।
हम जीव जगत के सबसे प्रबुद्ध प्राणी के रूप में जब अपने को देखते हैं तब हम इन तीनों में एक विवेकपूर्ण,बुद्धि के साथ नैतिक समन्वय बना कर एक खुशहाल ,आनन्ददायी और मर्यादित जीवन जी सकते हैं!
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
24 मई ,21
पटना
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