ताड़ का कोआ
बचपन को याद करता हूँ। हमारा नौकर था एक। गाय भैंस की देखभाल करने वाला। बैशाख आते ही बौरा जाता था। होता यह है कि बैसाख में ही ताड़ से मधुर रस निकल सभी लोगों को बौराने हेतु खुल्ला निमंत्रण देने लगता है उसी को पी वह बौराया रहता था। लोग बोलते थे कि वह ताड़ी पीता था।
गर्मी के दिनों में ही ताड़ के पेड़ों में फल लगते हैं और उनसे रस निकलने लगते हैं। जिनमें फल लगते हैं वो मादा ताड़ पेड़ हुआ करते हैं। जबकि नर ताड़ पेड़ में लंबे लंबे बाल फलते हैं जिन्हें किसान काट जलावन आदि में व्यवहार करते हैं।
मादा ताड़ पेड़ में फले फल रस तो देते ही हैं पर अगर उन्हें काटा जाये या गांव की बोली में एक हँसुली से छेबा जाये तो बड़े नाजुक नाजुक तीन कोआ निकलते हैं प्रत्येक फल से, जिनको खाना बहुत ही अच्छा लगता है। तो हमलोग बचपन में खूब खाये इसे। मेरा नौकर ताड़ी जितना पीता था पर खूब फल छेब छेब खिलाया। अज्जू कोआ खाने का मजा कुछ अलग ही होता था। कुछ को जुआया कोआ खाने में मजा आता था।
एक फल में तीन कोआ निकलता था। किसी किसी में दो भी। मेरे बाबूजी खूब कोआ खाते थे। बल्कि उन्हीं के आदेश पर हमारे घर के दरवाजे पर हमारा नौकर ताड़ का फल लाता और उनको छेबता था।
हर कोआ में मीठा पानी होता था। जैसे नारियल में होता है। जिसे पीने में मजा आता था। हर कोआ एक पतले पीले खोल से घिरा रहता था जिसके साथ ही कोआ को खाना पड़ता था क्योंकि उसको छुड़ाना बहुत ही श्रमसाध्य कार्य होता था। पर कोआ के चारों तरफ से अगर उनको हटा दिया जाए तो फल बिलकुल जेली जैसा लगता है एकदम नर्म नर्म। तभी तो अंग्रेजी में इसे आइस एप्पल कहते हैं !
यह विशुद्ध देशी फल है। गरीबों का फल! शहर में शायद ही मिले? पर दुहाई बाजारवाद की यह अब ऑनलाइन भी मिलने लगा है। पता नहीं ,बाजार में ऑनलाइन मिलने वाला कोआ कैसा लगता होगा पर हमलोग ताजा ही खाते थे। बल्कि छेबा हुआ कोआ अगर बच भी जाये तो हमलोग नहीं खाते थे क्योंकि तब स्वाद कुछ अलग हो जाता था। दरुआईन ! इसे ताजा ही खाने की स्वीकृति थी हमलोगों को । लोग बोलते थे कि बासी खाना स्वास्थ्यप्रद नहीं होता।
यही ताड़ फल जब पकने लगता था ताड़ के पेड़ में तो पक कर चू जाता था। गरीब बच्चे तब इसके छिलके को मथ खाते थे। हमलोग कभी नहीं खाये पर जो खाये वो बोलते हैं कि वह खाना भी शानदार होता था !
इसी पके ताड़ फल को तोड़ या चुए फल को मिट्टी में जब हम दबा रख देते थे तो कुछ दिनों बाद ये फल अंकुरित हो जाते थे। अंकुरित फल को हमलोग अंकुरा कहते हैं। तब उसे गड़ासा से काट या फाड़ हम उसके अंदर से एक सफेद पदार्थ निकालते थे जो खाने में सचमुच में स्वादिष्ट होता था। बहुत ही सुंदर भी। उसका बाहरी खोल नारियल की गिरी सा लगे।
हमलोग अंकुरा भी खूब खाते थे। आज ऐसे फल को खाये करीब तीस बरस हो गए। हाँ ,शहरी जो हो गए हम! हमारे बच्चे तो गूगल पर इसकी तस्वीर देख हमलोगों से पूछते हैं कि यह क्या होता है?
हमलोगों ने भी नई पीढ़ी को कितना कूप मण्डूक बना दिया ? दुखद है।
खैर ,आप कब खाये थे इसे?
काश ,इस बार हम इसे खा पाएं?
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© डॉ. शंभु कुमार सिंह
3 अप्रैल,21
पटना
प्रकृति मित्र
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