जय हो बाबा बटेश्वरनाथ !
हमलोग जब गांव में रहते थे तो शिवरात्रि की बड़ी बेचैनी से प्रतीक्षा करते थे। बच्चे थे तो भोलेनाथ से मिलने से ज्यादा बटेश्वरनाथ मेला घूमने की लालसा हमें व्याकुल किये रहती थी।
सुबह से ही जब हम सोए रहते थे तभी से हर हर महादेव का जयघोष सुनने लगते थे। बाबूजी बोलते थे ये लोग जलढ़री में जा रहे हैं बटेशर स्थान ! हाँ ,सही समझे आप, जिसे हम बटेश्वरनाथ बोल रहे हैं उसे हम सामान्यरूप से बटेशर स्थान ही बोलते रहे हैं। बटेशर स्थान में वटवृक्षों की आप कतार देखेंगे । अनुमानतः दस या उससे ज्यादा ,कभी गिना नहीं। इसी वटवृक्षों में एक वट के बीच में काले पत्थर के रूप में स्थापित हैं बाबा बटेश्वरनाथ ! इनके बारे में अनेकों दंतकथाएं हैं। किवदंतियां हैं। पर कोई ऐतिहासिक तथ्य या प्रमाण उपलब्ध नहीं है। बस आस्था और विश्वास के साथ बाबा बटेश्वरनाथ को हम बरसों से पूजते आ रहे हैं। कहते हैं ,बाबा के दरवाजे जिसने माथा टेका उसकी मनोकामना पूरी हुई ही। बहुत लोग रोते आये हैं और फिर यहाँ से हँसते गए हैं। तो ऐसे हैं बाबा बटेश्वरनाथ ,भोले भंडारी !
इलाके का यह सबसे बड़ा मेला हुआ करता था। अब शहरीकरण ने मेला की चमक को थोड़ी फीकी की है पर एक जमाने में कोसों दूर से लोग मेले में आते थे। पर हम लोग तो सौभाग्यशाली हैं कि बाबा के ही आँगन में रह रहे हैं। हाँ ,हमारा गांव गराही बटेशर स्थान से मात्र एक डेढ़ किलोमीटर ही है। गराही से चलिये तो मेथुरापुर और फिर लंकाटोला होते हुए बाबा बटेश्वरनाथ के दरबार में पहुंचे हुए हैं। उधर बहसी, मुकुंदपुर, नरहरपुर ,बसतपुर से तो इधर अंधरा बड़ ,गाजीपुर ,उफरौल से लोगों का रेला लगा रहता था। और भी आसपास के गांव से लोग जुटते थे। बेटियां आती थी ,बाबा का दर्शन कर अपने माँ ,भाभी सबसे भी मिलती थी। उनको कहीं गले मिल रोते देखना आम बात थी। ये खुशी के आंसू होते थे या दुख के, नहीं कह सकते ?
बाबूजी स्नान ध्यान कर तैयार होते थे जलढ़री के लिए। चेचर से लाये गंगा जल की बहँगी कोई कहार उठा ले चलता था। साथ बाबूजी भी। चकमलही का जद्दु महतो और बाद में उसका लड़का शंकर यह काम करता था। बहँगी का। कभी कभी जद्दु महतो का भाई भी । जल में बेलपत्र ,भांग की पत्तियां ,धतूरे का फूल, अन्य फूल आदि भी डाले जाते थे। जलढ़री कर जब लौटते तो बर्तन खाली नहीं होता था। उसमें केसउर जिसे मिश्रीकंद भी कहा जाता है, वह और बेर ,गाजर आदि डाल कर लौटते थे। जलेबी भी लाते थे।
मेले में देशी मिठाइयों की दुकानें खूब होती थी। उसी से जलेबी खरीदी जाती थी। झिलिया मुरही भी । सेब ,पिआजुआ भी खूब बिकता था। जितनी मिठाईयां उतने ही धूल। सब भक्तों के चरणों से उड़ी हुई। उधर से लौटते तो चेहरे पूरा धूल ही धूल मानो पृथ्वीपुत्र लौट रहे हैं माँ की गोद से! तो हमलोग इस मिठाई को देखते तो थे पर खाते शायद ही थे ! बाबूजी कहते अस्वास्थ्यकर है ,नहीं खाना है पर कभी कभार खा ही लेते थे हम! चोरी चुपके!
मेला में जैसे ही घुसते आपको बढ़ई की अनेकों दुकानें मिलती। साथ ही लुहार की भी। जगह जगह भाथी चल रहे हैं ,हथौड़े बज रहे हैं। कहीं आरी, बसूला ,रंदा चल रहा होता था। तो कहीं ओखली, मूसल ,चकला ,कठौती की खूबसूरत दुकानें और उतनी ही खूबसूरत गृहणियां मोल तोल में जुटी हुई दिखतीं।
मेला में एक किनारे गदहे भी चरते मिल जाते। न न ,ये मेला देखने नहीं आये थे बल्कि इनपर लोढ़ी, सिलौटी ,जांता लाद कर बेचने वाले आते थे। इसकी भी खूब बिक्री होती थी । फसुल, हँसुआ, खुरपी ,सुआ ,कुदाली की बिक्री परवान पर रहती थी। दादी के हुक्के के लिए गज जरूर खरीदते थे हम,तो चिमटी भी । यह तेजपत्ता का महामेला होता था। हमारे चकमलही के कुशवाहा लोगों की कई एक दुकान हुआ करती थी तेजपत्ते की। लोग किलो का किलो खरीद ले जा रहे होते थे। साल भर का एक ही बार लेते थे ,फिर तो अगली जलढ़री में ही न !
यहाँ लकड़ी की शानदार दुकानें होती थी जो होली तक रहती थी। शादी बियाह का मौसम भी होता था । गौना ,द्विरागमन का भी तो पलंग ,टेबल ,कुर्सी खूब बिकती थी। हमारा पहला सोफासेट इसी मेले से खरीद आया था। शायद तीन सौ रुपयों में ?मेले में दरी की भी दुकान होती थी। उसकी बिक्री भी खूब। बक्सा तो और भी । शादी के मौसम को देखते इसकी मांग खूब होती थी। बर्तन भी बिकते थे। कड़ाही लीजिये या बाल्टी? या लोटा ,नहीं तो गिलास ! चमचमाते बर्तन बिकते नजर आते थे। किसानों हेतु चारा मशीन भी खूब बिकते नजर आते थे। इसका मतलब हमारा क्षेत्र पशुपालन में अग्रिम था। पर अब वह बात नहीं।
खैर ,अब आइये इधर मीनाबाजार में। चोटी, झुमका,मटरमाला,टिकुली ,सिंदूर की दुकान सजी हुई है और उतनी ही भीड़। यह खरीदें कि वह खरीदें इस उधेड़बुन में महिलाएं बेचैन। उधर बच्चे भी बेचैन। इस मेला की एक विशेषता होती थी पानी वाला गेंद। इस गेंद में पानी भर उसे एक रबड़ से बांध दिया जाता था। खरीदिये और हाथ से उसे पटकते रहिए हवा में ही। हां, रबड़ नहीं छोड़ना है। बड़ी मजेदार होती थी ये गेंदें। किसी को मारिये इसी गेंद से और बूमरैंग की तरह गेंद फिर लौट के आपके ही हाथ में। पर एक बड़ी खराबी थी इसमें । जब फूटे तो दुर्गंध बहुत करे ।पता नहीं कहाँ का पानी भरता था बेचने वाला? उल्टी हो जाती थी।
खिलौने में एक बंदर भी हुआ करता था। एक पेड़ पर चढ़ता ,उतरता। एक सीधी लोहे की तार में एक प्लास्टिक का बंदर थरथराते उतरता ,चढ़ता था। चढ़ता तभी था जब तार के शीर्ष को नीचे कर देते नहीं तो नहीं! इसकी खूब बिक्री होती थी। बांसुरी ,सीटी, पिपही ,बैलून की चलती फिरती दुकानें तो खूब होती थी। बच्चों से घिरी। मचलते बच्चे और आंख तरेरते माता पिता। ओह ,क्या मजबूरियां होती थी माँ बाप की भी तब ! परेशान हाल रहते थे हम बच्चों से।
इस मेले की एक विशेषता यह कि यहाँ सोडा वॉटर की बोतलों की बिक्री भी खूब होती थी। तब कोकाकोला नहीं होता था । यहाँ क्या दिल्ली तक में भी नहीं। तब यही होता था हम लोगों का कोल्ड ड्रिंक! बोतल में हाई प्रेशर पेय भरा रहता था। उसके गर्दन में एक कांच की गोली फंसी रहती थी तो ड्रिंक निकलता नहीं था। बेचने वाला पहले एक छड़ से उस गोली को नीचे धकेलता था फिर हम सबों को पीने देता था। पीओ बाबू गटागट ! क्या मजा आता था ! कह नहीं सकते!
मेले में छोटे मोटे झूले भी लगते थे। एक जादूघर भी होता था। आइये आइये ,देखिये बिना सिर का आदमी।एक आदमी लंबा चोंगा पहने और मुखौटा लगाए उस जादूघर के आगे ऊंचे मंच पर हिलता रहता था। यह भी हम बच्चों केलिये कौतूहल का विषय होता था। मुझे तो उस पुतले का मुँह मेरे स्कूल के एक मास्टर साहब जैसा लगे। मैं तो कभी कभी डर जाता था कि लगे वो मुझे बुला रहे हैं ,आओ शंभु ,आज पहाड़ा याद कराते हैं ! पर दरअसल वह कोई दूसरा ही होता था। मास्टर साहब नहीं। हाँ तो ,भाइयों ,बहनों ,मेहरबानों ,आइये ,आइये ,देखिये ,बिना सिर का आदमी! घोषणा बदस्तूर जारी है। हम बच्चे यह घोषणा सुन कर ही मचल जाते कि देखेंगे पर डरते भी थे कि क्या पता भूतवा पकड़ न ले। भूतवा कभी पकड़ा नहीं पर मेले की यादें अभी भी पकड़े हुए हैं। इस साल 11 मार्च को ही शिवरात्रि का पर्व है। मेरी शादी के साल,1994 में भी शिवरात्रि 11 मार्च को ही थी। सपरिवार गया था मेले में। शायद बैंडबाजा भी बजा था ? बहुत मीठी यादेँ हैं इस मेले की।
हे गौरीशंकर , क्या कहें आज आपको,बस अपनी कृपा हम सबों पर बनाये रखें। जीवन में जो कुछ अपराध हुए हों उनको क्षमा करना !
बोल बम !??
हर महादेव !??
©डॉ. शंभु कुमार सिंह
11 मार्च ,21 ,पटना
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