कंसार का संसार
कंसार मूलतः एक सामुदायिक चूल्हा होता है जहाँ आप केवल भूँजा भुजवा सकते हैं। अब यह लगभग विलुप्ति पर है पर एक समय ऐसा था कि यह हर गांव में होता था। इस चूल्हे पर केवल भुजाई होती थी,अब भी होती है।
बिहारी संस्कृति में भूँजा और सत्तू का बहुत ही महत्व रहा है। सुबह का जलपान सत्तू तो शाम का नाश्ता भूँजा से । भूँजा भी गरम गरम ! ताजा ,कुरकुरा। स्वस्थ भोजन और स्वादिष्ट। खाओ और एक गिलास गन्ने का रस पी लो फिर मन बम बम करने लगता है। गन्ने का रस नहीं तो चाय लो ,चाय नहीं पीते हों तो शीतल जल ही काफी है अलौकिक तृप्ति हेतु।
इस तृप्ति की जननी यही कंसार होता है क्योंकि यह ही भूँजा को सहजता से उपलब्ध कराता है। लेकिन धीरे धीरे गांव में शहर घुस रहा है और अब यहाँ भी पन्नी ,पॉलीथिन के पैकेट में दालमोट ,भुजिया बिक रही है तो गांव वाले भी कंसार को भूल रहे हैं। कंसार केवल स्वाद और स्वास्थ्य नहीं देता था वरन गांव में किसी को रोजगार भी । कंसार वाली का खाना पीना इसी कंसार से हो जाता था।
बचपन में देखते थे सुप या डगरा में बच्चे ,बूढ़े, महिला चावल,चना आदि भुजवाने कंसारी आते थे और कंसारीन को कुछ हिस्सा अनाज का दे भूँजा भुजवा लेते थे। फिर घर जा गरम गरम भूँजा में तेल,नमक ,प्याज और हरी मिर्च को मिला भोग लगाते थे। यह भोग ही परम योग होता था भोजन का। परमानंद का भोग !
ग्रामीण स्वास्थ्य ,आर्थिक विकास और समरसता में इस कंसार का छोटा पर महत्वपूर्ण योगदान होता था। पर दुखद है यह देखना कि कंसार अब विलुप्त हो रहे हैं। अब न पनघट पर गोरियों का जमघट लगता है न कंसार पर पहले मेरा भुज दीजिये की गुहार!
वो भी एक जमाना था जो हम भूलते जा रहे हैं !
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©Dr.Shambhu Kumar Singh
प्रकृति मित्र
Prakriti Mitra
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(प्रतीकात्मक तस्वीर इंटरनेट से ली गयी है!)