पराली की कथा
बिहार में धन कटनी शुरू हो गयी है। जिस तरह की अब धान की नस्लें आ रही हैं उनके लिए 120 दिन से 140 में पूरे खेत से धान की फसल साफ हो जाती है। यानी कट कर तैयार। अभी हरियाणा और पंजाब में भी धान तैयार हो रहा है और मीडिया रिपोर्ट को देखें तो हरियाणा में किसानों को पच्चीस सौ की दर से दंड भी लिया गया है जो खेतों में पराली जलाते हैं।
अब आइये यह पता करते हैं कि ये पराली जलाते क्यों हैं ? पहला कारण तो फार्म मैकेनाइजेशन है । पहले मजदूर फसल की कटनी करते थे। बैठ कर या झुक कर काटते थे । कैंचिया हँसुआ से धान जड़ से काटते थे। थोड़ा ऊपर से क्यों काटे यह सोचते नहीं थे । मन लगा कर कटनी करते थे तो खेत में पराली जलाने की नौबत नहीं आती थी। पर अगर रीपर या हार्वेस्टर से कटनी हो तो करीब एक फीट तक डंठल छूट जाता है खेत में जिसे जलाने की जरूरत किसानों को पड़ जाती है कारण कि उन्हें तत्काल गेंहूँ या मकई की फसल लगानी होती है।
पहले मजदूर हों या किसान सभी के पास गाय, बैल, भैंस प्रचूर हुआ करती थी तो उनको चारा हेतु पराली की जरूरत होती थी तो वे पराली का महत्व जानते थे और उसे बर्बाद नहीं होने देते थे। पर जब पशुपालन ही खत्म होने लगा तो लोगों में पराली की भी चिंता खत्म होने लगी और यह जले या जो हो इनकी अब उनको चिंता नहीं रहती है। पहले लोग पराली से घर को भी छाते थे।अब टीन है छत के लिए तो यह भी एक कारण है। क्या जरूरत है पराली की?
एक और महत्वपूर्ण कारण यह है कि हमारे नीति निर्माताओं को खेती का व्यावहारिक ज्ञान होता नहीं है तो असंतुलित योजना बनाते हैं ,उसी का परिणाम है कि पराली अभी खेतों में उपेक्षित जलाई जा रही है। जब वे फार्म मैकेनाइजेशन पर योजना बना रहे थे तो इसके परिणामस्वरूप बैलों और अन्य पशुपालन के भविष्य पर भी सोचना चाहिए था पर नहीं सोचें।वे योजना के साइड इफ़ेक्ट पर चर्चा ही नहीं करते! परिणाम यह हुआ कि बैलों का पालन पोषण खत्म हो गया और चारा के रूप में पराली की खपत भी कम हुई।तो अब यह प्रदूषण का गम्भीर कारण बन गया है। अगर धान की खेती होती है तो उससे प्राप्त पराली या भूसे का क्या अन्य इको फ्रेंडली उपाय हो इस पर सोचा ही नहीं गया ! क्या पराली से गत्ता, कागज, फर्नीचर, बिजली उत्पादन या ऐसे ही कोई अन्य कार्य या उत्पाद बनाये जा सकते हैं इस पर विचार ही नहीं किया गया ! जबकि ऐसे
कार्य हो सकते हैं!
हमारे बिहार में भी नई नस्लों की धान की फसलें कट रही है। गनीमत है कि पराली यानी पुआल की पूछ यहाँ अभी खत्म नहीं हुई है । लोग विशेष रूप से चारा हेतु पुआल को संग्रहित करते हैं। आप अभी भी बिहार में पुआल के पर्वतनुमा ढेंर देख सकते हैं जिसे हमलोग टाल या पुँज कहते हैं। पर वह दिन दूर नहीं जब बिहार भी पराली के जलाने के धुएँ से त्रस्त रहेगा ! अभी से ही चेतने की जरूरत है।हालांकि पिछले वर्ष पराली के ही विषय पर एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी पटना के ज्ञान भवन में आयोजित थी। इससे कितने किसान लाभान्वित हुए यह तो भगवान को भी नहीं मालूम तो हम क्या बताएं ? जो भी हो पराली को नहीं जलाना है ,अगर इसका कुछ नहीं कर सकते तो सड़ा कर कम्पोस्ट बनाएं और खेती को रासायनिक जहर से कमसेकम मुक्त तो कर ही सकते हैं!
जय किसान!
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प्रकृति मित्र
Prakriti Mitra
Bole Bihar
©Dr.Shambhu Kumar Singh
A progressive FARMER
Patna
15 Oct.,20