मां की याद !
मैं छठी कक्षा केलिये नए स्कूल और हॉस्टल में आ गया था । अभी तक तो गांव में ही रह पढ़ाई की थी । पर अब मैं परदेशी हो गया था । मैं कभी स्कूल जाने से डरा नहीं । गांव में बच्चों को कभी कभी उसके घर वाले रोते, पीटते, टांग कर लाते देखता तो मुझे आश्चर्य होता कि आखिर ये क्यों रो रहे हैं ? स्कूल ही तो आना है कोई जेल तो नहीं ? पर जब मुझे हॉस्टल जाने की नौबत आई तो वह मेरे जीवन का सबसे भावुक और हृदयविदारक घटना हुआ करती थी ।
मां मेरे लिये बहुत ही प्रिय थी । उसी तरह बाबूजी भी । दादी भी थी और छोटी दो बहनें। इन सबसे बिछुड़ने की घटना का किस तरह उल्लेख करूँ ,मैं असमर्थ हूँ ! तब बैलगाड़ी हुआ करती थी । बसस्टैंड तक जाने हेतु उसी का व्यवहार करते थे हम । उसपर गद्दा रखा जाता । फिर टप्पर बांधा जाता । चादर बिछाई जाती । नौकर बैल ले तैयार होता । पर मैं आंखों में भरपूर आंसू और हृदय में वेदना लिये मन ही मन भगवान से प्रार्थना करता रहता था कि आज की यह यात्रा स्थगित हो जाये ! भगवान से इसलिये मनाता रहता था कि अब तक मां, बाबूजी के दरबार में कई प्रार्थनाएं स्वीकृत हो चुकी होती थी । मां बोलती कि ठीक है कल्ह जाना । पर कल्ह तो किसी दिन होना ही था ! तो अब सीधे भगवान के दरबार में गुहार लगाता । कभी कभी भगवान भी इस नादान बच्चे की प्रार्थना सुन लेते थे । फिर तो जो खुशी मिलती थी उसका वर्णन करना शब्दों के वश की बात नहीं !
हॉस्टल जाने की तैयारी के क्रम में मां खाने पीने का सामान भी देती थी । भुना हुआ चिउड़ा ,भूजा ,खजूरी, निमकी आदि । कुछ निम्बू,घी,भुट्टे भी अगर खेत में हैं । कुछ पैसे भी । तब दस रुपए भी दस हज़ार होते थे । बैल गाड़ी पर बैठने के पूर्व मां से लिपट कुछ देर खड़ा रहता । नौकर के बार बार कहने पर शांत मन से जा गाड़ी में बैठ जाता । मैं मां के सामने नहीं रोता था । पता नहीं क्यों ?हां, मां रोती थी तो मैं उसके आंसू जरूर पोछता । गाड़ी में बैठते ही गाड़ीवान बैलगाड़ी हांक देता । कभी कभी मैं घोड़े पे बैठ कर भी जाता था । नौकर लगाम पकड़े मुझे बस स्टैंड तक ले जाता था । साथ में बाबूजी जाते थे तो कभी सुकदेव मामा । कभी हमारे खेती के मैनेजर जिन्हें भी मामा ही बोलता था । वहाँ से विदा होता तो ऐसा लगता कि यह जिंदगी की अंतिम यात्रा है हालांकि कुछ ही दिनों बाद छुट्टियों में फिर यहां लौटना होता था ।
मां से मिल जब मैं बैलगाड़ी में बैठता ,फूटफूट कर रोता था । उधर मां अपने आँचल से आंखें पोछती दरवाजे पर तबतक खड़ी रहती जबतक मैं उसकी आँखों से ओझल नहीं हो जाता । क्या पता वह बाद में भी वहीं खड़ी रहती होगी ?
आंखों से मां तब ओझल हो जाती थी पर वह अभी भी स्मृतियों में मेरे मानस पटल पर अंकित है और मैं उसे अभी भी देख पाता हूँ दरवाजे पे खड़ी अपनी आंखें पोछते हुए !
मां को नमन !