पिता आज घर पर हैं
रविवार था वह दिन ! कुछ दिन पहले की बात है। मेरी बेटी अपनी एक सहेली से पूछी कि आज रविवार है , खूब एंजॉय कर रही होगी छुट्टी ?
सहेली बोली ,क्या खाक एंजॉय करूंगी ,पापा को भी छुट्टी है । वो भी घर पर हैं !
इस पर मेरी बेटी को आश्चर्य हुआ। वो हम लोगों को बोली कि मेरी सहेली ऐसे बोल रही थी! पापा से तो और भी मन लगता है , उनसे छुट्टी खराब कैसे हो जाती है ?
तो यह है आज का पारिवारिक माहौल ? कि माँ बाप आनंद के स्रोत नहीं रह गए हैं बच्चों की नजर में ! क्या कारण हो सकता है उस पर विस्तार से बात हो सकती है । पर बच्चों को ही क्यों अकेले दोष दें , पिता भी अब वो पिता नहीं रहे ! न वह जमाना रहा !
हालांकि पिता हर युग में खलनायक घोषित होते रहा है । किसी किसी परिवार में पिता पिता न हो थानेदार होता है । बच्चे घोषित अपराधी । मानो विकास दुबे हों वो ? पर कुछ नहीं वरन बहुत से ऐसे भी परिवार थे और हैं जिनमें पिता और बच्चों का संबंध दोस्ताना होता है । दोस्ताना का मतलब यह नहीं कि क्या यार कैसे हो ,यह सब नहीं ! दोस्ताना का मतलब यह कि पिता अगर साथ हैं तो एक सुकून है, एक दिलासा है, एक आनंद है ,असीमित खुशी है !
मेरा सौभाग्य है कि मेरे पिता मेरे सबकुछ थे । मित्र तो थे ही । संरक्षक थे । देवता भी । पथप्रदर्शक भी । मैनेजर भी । सेवक भी । बैंक भी । और गलती करने पर कुटाई करने वाले व्यक्ति भी !
मैं अपने पिता को ही आदर्श मानता रहा हूँ । पर हर बात उनकी नहीं माना । चूंकि हमारे बीच संवाद की लोकतांत्रिकता थी तो खुल कर बहस तक होती थी । मैं खुल कर आलोचना कर देता था । तो आलोचना अलग बात थी , इस कारण अप्रिय तो कभी नहीं रहे । असहमति और घृणा दो अलग चीज है । हम अपने पिता से असहमत तो होते थे ,पर प्यार भी अथाह करते थे । घृणा की बात ही नहीं । हम पिता के साथ रहते थे । कांटेक्ट में नहीं कनेक्टेड थे । जुड़े थे । अद्भुत जुड़ाव था !
वो किताब थे हमारे लिए । सिनेमा भी । खेल भी । उनके साथ खेलते थे हम । देखिये एक खेल आप भी । अखबार आया हुआ है । बाबूजी चूंकि पहले पढ़ना चाहते हैं तो पढ़ रहे हैं । 85 साल की उम्र में भी बिना चश्मा पढ़ लेते हैं । मैं पढ़ने का चश्मा तब लगाता था । मैं चश्मा खोज रहा हूँ । बाबूजी से भी पूछता हूँ ,क्या आप मेरा चश्मा देखें हैं ? वो थोड़ी शरारती मुद्रा में मेरी तरफ देखते हैं फिर अखबार पढ़ने में तल्लीन । थोड़ी देर बाद अखबार मुझे देते हैं पढ़ने को और अपने पॉकेट से मेरा चश्मा भी निकाल । हम कुढ़े हुए तो थे ही पर यह चश्मा का खेल देख बाबूजी की तरफ देख मुस्कुरा अखबार पढ़ने लगता हूँ !
मेरी छोटी बेटी सेब खा रही है । बाबूजी आते हैं और उससे छीन एक दो टुकड़ा सेब खा जाते हैं । बेटी रुआंसी हो जाती है, फिर देखता हूँ कि वो जेब से चॉकलेट निकाल उसे बड़े प्यार से खिला रहे हैं !
तो रिश्ता एक मकान में रहने से नहीं होता है । रिश्ता दिल के जुड़ाव से होता है । आपकी भावना दूसरे के प्रति कैसी है इससे रिश्ते और आपके व्यवहार नियंत्रित होते हैं । किसके प्रति क्या धारणा है ,वह आदमी की परिवरिश भी तय करती है ।
तो क्या संडे ,मंडे , हर दिन पिता हमारे साथ ही रहे । वो किसान थे ! मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि किस व्यक्ति के पाले में फंसा हुआ हूँ । अब बाबूजी नहीं हैं तो लगता है, हमने क्या खोया है ?
बहुत सुख जीवन से चला गया !
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
20 जुलाई ,20 , पटना