यह चिट्ठी है जो मेरे बाबूजी ने आज से करीब 80 साल पहले लिखी थी अपनी माँ को । तब बाबूजी नौंवी कक्षा के छात्र थे । एक लालटेन में दो छात्र पढ़ते थे । राजेन्द्र चचा दूसरे छात्र थे । ये बाद में एम एस कॉलेज के प्रिंसिपल हुए । हॉस्टल में रहते थे । संयोग यह कि ये लोग पटना यूनिवर्सिटी तक साथ ही पढ़े ।
बाबूजी को एक घड़ी भी चाहिए थी । उनकी कितनी ही इच्छायें थी और अगणित सपनें !
मैं जब जब इस पत्र को हाथ में लिया तो पहले दिल से लगाया फिर भर मन रो लेता हूँ । कितने कष्ट और तपस्या की पढ़ाई थी उनकी ?
उनके पिताजी की मृत्यु तो तब हो गयी थी जब वे मात्र 6 महीना के ही थे । मेरी दादी कितने कष्ट से और अरमानों के साथ उन्हें पढ़ने को भेजी होगी ,वह भी एकलौते बेटे को नजर से बहुत दूर ? सोचता हूँ तो आँखें भर जाती है ! पर यह मुझे सुखद लगता है कि बाबूजी ने अपनी माँ के सपनों को धूमिल होने नहीं दिया !
नहीं तो बिगड़ने से रोकने को उनके सामने कोई नहीं था सिवाए उनकी आत्मा के ? आज तो लाखों जतन करो , पेड़ बबूल के ही उग रहे हैं ! तो ऐसे पिता मेरे लिए आदर्श रहे । मेरे हीरो । हिमालय जैसे अडिग । विराट !
ए पिता
आज जब भी
मैं देखता हूँ
बिजली के बल्ब
जलते घर में
कभी अनावश्यक
तुरंत उन्हें बुझा देता हूँ
क्योंकि तब नजर आता
तेरा चेहरा झुका हुआ
लालटेन की रोशनी के
सामने
और दिल में कहीं एक
सपना बिजली के बल्ब में
पढ़ने का
जलता हुआ
तुम्हारा सपना तो
एक घड़ी भी थी
पर यहाँ हर कमरे की दीवार पर
टंगी हैं बेशकीमती घड़ियां
जिनकी टिक टिक से अनजान
मैं सोफे पर पसरा रहता हूँ
पर
जब देखता हूँ उन
घड़ियों को
तुम्हारा चेहरा फिर सामने आता है
ए पिता
और मैं काम पर चल देता हूँ
समय नहीं खत्म करना है
उस पिता के पुत्र को
जिसको समय की
कीमत मालूम थी
तुम
होस्टल में
जब खाते थे
रोज पनीली दालें
और गीले भात
और
तुम्हारे सपनों में आती थी
पूड़ियां
गर्म गर्म
आलूदम के साथ
आज जब भी
खाता हूँ
पूड़ियां
पुए
पकवान
उनके मीठे स्वाद
में
अपने आंसुओं का
स्वाद भी मिला
पाता हूँ
खारा सा
ओ मेरे पिता !
©डॉ. शंभु कुमार सिंह
22 जून ,20
पटना ।
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