ग्रामीण महिलाओं में सैनिटरी पैड्स
हमारे अभियान #चुप्पी_तोड़ो के द्वारा हमने सैनिटरी पैड्स पर कुछ काम किया । ग्रामीण क्षेत्रों में इस पर काम करना बहुत ही कठिन है। वहाँ महिलाएं खुल कर बोल नहीं पाती । चूंकि यह पूरा मामला उनके यौन अंग से जुड़ा है तो इस पर कुछ भी उनसे बात करना खतरे से खाली नहीं। आप की पिटाई भी हो जा सकती है। मर्द हो कर काम करना और भी कठिन है। मैंने देखा है कि स्त्री कार्यकर्ताओं को भी बड़ी कठिनाई है। ग्रामीण महिलाएं तो ऐसी हैं कि खुल कर पति से भी बात नहीं करती तो महिला कार्यकर्ताओं को भी नहीं बोलती।
हमने देखा है कि ग्रामीण इलाकों में जो भी सैनिटरी नैपकिन्स पर कार्य किया गया उसमें शोध और वैज्ञानिकता का अभाव है । वहाँ मुद्दा यही है कि उनको सैनिटरी नैपकिन्स नहीं मिलते।कहा जाता है कि उनके लिए सैनिटरी पैड्स लग्जरी आइटम है। वास्तव में ऐसी बात नहीं है । समस्या दूसरी है जिसपर लोग ध्यान नहीं दे रहे! नीति निर्माता ,समाजसेवी सभी माथा पीट रहे हैं । अंधेरे में तीर चला रहे हैं । मूल समस्या को समझ नहीं रहें !
इस हेतु आइए एक प्रयोग करते हैं ? एकदम साधारण सा । इसपर किसी की भी नजर नहीं गयी। पर लोग महिला स्वास्थ्य पर बड़ी बड़ी हाँकते जाते हैं!दुखद है। हर कोई समाज सेवी बना हुआ है । महिला स्वास्थ्य का झंडा ले बदहवास सा चिल्ला रहा है। यह सबसे बड़ी मूर्खता है ।
तो प्रयोग करें ?
अभी बाजार में जितने भी पैड्स मिलते हैं चाहे सस्ते हों या महंगे उनकी एक एक पीस लीजिये । ज्यादा भी लें। उनको ग्रामीण लड़कियों और महिलाओं में बांट दीजिये । उन्हें बता भी दीजिये कि कैसे उपयोग करना है । फिर एक महीना बाद जा कर डेटा लीजिये । जानकारी प्राप्त कीजिये । पता चलेगा कि किसी भी महिला या लड़की ने उन पैड्स को यूज नहीं किया है। कारण क्या है ,इस पर शोध कीजिये ।
दरअसल सैनिटरी नैपकिन्स के ग्रामीण उपयोग के कारण इनकी अनुपलब्धता नहीं वरन ग्रामीण वस्त्र व्यवहार की परंपरा है । होता क्या है कि हमारे बाजार में अभी भी जितने पैड्स उपलब्ध हैं सभी में विंग्स होते हैं । अच्छे पैड्स की यह एक निशानी भी है । यह अंडरगार्मेंट्स में स्थिर रूप से फिट रहे इस हेतु आवश्यक है। इनके पृष्ठ भाग पर एक स्ट्रैप एडहेसिव का भी होता है जो पैंटी की चौड़ी पट्टी पर चिपक जाता है ।
अब फिर गाँव की बात करें । गांव में केवल 2% लड़कियां हैं जो पैंटी पहनती हैं । मजदूर वर्ग में एक भी नहीं । वो या तो सलवार या साड़ी पहनती हैं । बिहार के बाहर झारखंड में कहीं कहीं लुंगी टाइप ड्रेस भी । मध्यप्रदेश ,राजस्थान,गुजरात आदि के इलाकों में घाँघरा । अंडरगार्मेंट्स के रूप में पैंटी का प्रयोग एकदम नहीं । उनको अगर आप सैनिटरी पैड्स दें वह भी विंग और एडहेसिव वाला तो उनका वो कुछ नहीं करेंगी । अचार भी नहीं डाल सकती।तो जब भी समाजसेवा का भूत सवार हो उनके माहवारी पर कार्य करने हेतु तो उनके पहनावा और रहनसहन की परंपरा को जरूर समझें अन्यथा कोई रिजल्ट नहीं ।
अब दूसरा प्रयोग किया । उनको जब पैड्स दिए तो साथ में तीन पैंटीज भी दिए । उनको बताया कि इनको कैसे व्यवहार करना है । बाद में जा कर जानकारी लिया तो मालूम हुआ कि लगभग सभी ने इनको व्यवहार किया । कुछ मुस्कुराते ,लजाते । पर पैड्स का उपयोग हुआ । तो मूल मुद्दा पैड्स की उपलब्धता नहीं वरन टाइप्स है । यह भी कि उनके वस्त्र पहने की प्रवृत्ति क्या है ?
शहरों में भी बहुत सी महिलाएं पैंटी नहीं पहनती । बहुत कुरेद कर पूछने पर बताती हैं । मेरी कुछ युवा दोस्त जो दिल्ली ,मुंबई में रहती हैं वो भी नहीं पहनती । क्यों तो बोलती हैं कंफर्ट नहीं लगता । तो यह है बड़े शहरों की बात । गांव की बात तो बहुत उलट है। वहाँ तो बहुतों ने देखा ही नहीं पैन्टीज।
हम उनको यह भी दे सकते हैं जिनमें ज्यादा दिक्कत नहीं है वह है वॉशेबल सैनिटरी नैपकिन्स । या आज से बहुत साल पहले मतलब 40 से 50 साल पहले जो केयर फ्री आदि ब्रांड उपलब्ध कराती थी हुक यानी लूप्स वाले सैनिटरी पैड्स । साथ में एक डोरी भी । जिन्हें कमर में बांध पैड को टिकाया जाता था । लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही नहीं बल्कि स्वदेशी भी इस पर काम नहीं कर रही।निर्माण मशीन भी वैसे नहीं मिल रहे । तो बेहतर है कि जब भी ग्रामीण महिलाओं के लिये सैनिटरी नैपकिन्स की बात करें पैन्टीज की बात जरूर करें या फिर वॉशेबल नैपकिन्स की बात करें । नहीं तो यह अभियान यूँ ही फ़ोटो खीचूँ रहेगा । परिणाम टांये टांये फिस्स !
तो साधो ,तू कहता कागद की लेखी ,मैं कहता आंखन की देखी ।
(बहुत बार गाली खाने की नौबत आने ,कहीं कहीं मार खाने की नौबत आने के बाद उपलब्ध जानकारी है तो सामान्य पर है बहुत ही महत्वपूर्ण । एक शोध पत्रिका को प्रेषित छपने हेतु । अतः इसकी कॉपी नहीं करें । सर्वाधिकार सुरक्षित ! )
©डॉ.शंभु कुमार सिंह
संयोजक ,चुप्पी तोड़ो अभियान
31 अगस्त ,20