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दही दर्शन

by Dr Shambhu Kumar Singh

दही पर चर्चा !

पिछले चुनाव में चाय पे चर्चा की धूम थी । इस बार नहीं है । वक्त के साथ मुद्दे बदल गए हैं । पर दही पर चर्चा तो हर समय की जा सकती है । जाड़े में तिल संक्रांति में तो चर्चा होती ही है , गर्मी में भी निहायत जरूरी है । चर्चा ही नहीं वरन गर्मी में दही की लस्सी बना गटका जाना भी चाहिए !
दही दूध से बनता है और खट्टा और मीठा दोनों तरह का होता है । दूध में दही का जोरण डाल दही जमाया जाता है । मेरी श्रीमती जी तो यह कैसरोल में जमाती हैं पर हमारे गांव में कतरी में जमाया जाता था । कतरी मिट्टी के बने छोटे बर्तन होते हैं । उसे धो कर जब आग पर सोंधाया जाता था तो एक सोंधी सोंधी महक घर में फैल जाती थी ।तब घर की सारी बिल्लियों के मुँह पर एक शातिर मुस्कान तैर जाती थी क्यों कि दही जमने जा रहा होता था । दही को गांव में सिकहर पर कतरी में रखा जाता था । सिकहर मने छीका जिसे आप मुहावरों में पढ़ते हैं कि बिल्ली के भाग में छीके का टूटना ,वही । पर मेरी बड़की भउजी तो छीके टूटने की भी प्रतीक्षा नहीं करती थी । बस कतरी उतारी और चट कर गयी । बिल्ली से ज्यादा चतुर और तेज ! दही से ही रायता बनता है । वैसे बिना दही का भी रायता फैलाया जा सकता है !
बंगाली लोग मिष्टी दही को बहुत पसंद करते हैं । दही के भी प्रकार होते थे गांव में । जैसे सजाओ दही । मह कर जिस दूध से दही जमाया जाता तो वह दही कटुई दही कहलाता था ।
अच्छे दही के लिए दूध को गाढ़ा गरम करना पड़ता है । बिना छाली उतारे दही जमाया जाता है । पर हमरी भउजी दही को पौउड़ती थी । गांव में अभी भी दही पौउड़ा ही जाता है । दही पौउड़ने के बाद कड़ाही की तली में जमे दूध को हमलोग खखोरी कहते थे । मां उसे सितुआ से खखोर हमसबों को खाने को देती थी । उसमें थोड़ा चीनी मिला कर खाने से अलौकिक आनंद और तृप्ति मिलती थी ।
दूध की छाली को मथने से मक्खन मिलता था । मक्खन को पकाने पर घी । मक्खन को भी गांव में दूसरे नाम से बुलाते थे । न्योन ! दही को मथनी से मथा जाता था । मथनी भी कई तरह के होते थे । रस्सी लगा कर भी मथनी को चलाया जाता था । मथने के बाद जो पानीदार दही बचता था उसे मट्ठा कहते हैं । हमलोग खूब मट्ठा पिये हुए हैं । मट्ठा में चावल पका कर मठचाउर भी बनता था । छालीदार दही से लस्सी भी बनाई जाती है । इसमें थोड़ा गुलाब जल डाल कर दो तीन गिलास हलक में उड़ेल दें तो कितनी भी गर्मी हो आपका धूप कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती !
सीमांचल में कुछ लोग दही बोरा में भी रखते देखे गए हैं ।
मक्खन को पकाने के बाद कड़ाही की तली में जला हुआ मक्खन खाने में मजेदार लगता है । हमलोग इसे डाढ़ी कहते हैं । इसमें चीनी मिला कर खाने से अद्भुत स्वाद मिलता है ।
दूध से छेना और खोआ दोनों बनता है । छेना से रसगुल्ला बनता है । आजकल शादी ब्याह में छेना की एक सब्जी जरूरी है नहीं तो लड़का का फूफा ही रूस जाता है । रसगुल्ला से याद आया मेरी एक भउजी रसगुलिया भउजी भी थी । उनको इसलिए यह नाम पड़ा कि उनके मैके से खूब रसगुल्ला आता था ! मेरे गांव में एक पंडित जी थे वह दही चुरा आम के बड़े शौकिन थे । बाद में उन्हें बच्चे चिढ़ाने लगे , पंडित जी प्रणाम , दही चुरा आम , ऊपर से दो खड़ाम ! फिर तो पंडित जी मंत्रोच्चार जैसी गाली बकते थे । खैर !
अब इतनी चर्चा के बाद आपके दिमाग का दही तो हो ही गया होगा ? तो पोस्ट लिखना बंद करता हूँ । बताइयेगा दही , नहीं नहीं वरन यह पोस्ट कितना मीठा और खट्टा बन पड़ा है ?
प्रतीक्षा रहेगी ।

© डॉ.शंभु कुमार सिंह
पटना
18 मई , 19
(नीचे कतरी या मटकुड़ी की तस्वीर !)

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