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सरस्वती मेला

by Dr Shambhu Kumar Singh

धमदाहा प्रखंड अंतर्गत कुँआरी पंचायत में बंशी पुरंदाहा का सरस्वती मेला

मेरी जानकारी के अनुसार इस क्षेत्र का एकमात्र मंदिर या थान है जो माता सरस्वती के नाम से है। बसंत पंचमी को यहाँ पूजा होती है। मिट्टी की मूर्तियों का मुहूर्त देख विसर्जन भी होता है।
सरस्वती पूजन पर दूधी भित्ता के स्व. सरयुग सिंह के कामत पर पूजा और भोज का आयोजन होता था जो अब बंद है। श्री रामनवमी के अवसर पर मेरे कामत पर पूजा और भोज होता था ,अब पूजा तो होती है पर भोज बंद है।मेरे पिताजी सीताराम सिंह जी के देहावसान के बाद मन ने इस भोज को करने की स्वीकृति नहीं दी!आश्विन दुर्गा पूजा के अवसर पर कुँआरी में दुर्गा स्थान में मूर्ति की स्थापना ,पूजा होती है और मेला भी लगता है।
मेला का आकर्षण अब कम हो रहा है। पहले तो सिनेमा भी लगता था। हमलोग सिनेमा भी देखते थे। एकबार बाबूजी के साथ बंशी पुरंदाहा में “दुश्मन” फ़िल्म देखी थी। वह फ़िल्म देखना इसलिए भी याद रहा कि हम अपने बाबूजी के साथ देखे थे। बाद में बाबूजी फ़िल्म ,उसके गाने ,हीरो ,हीरोइन पर खूब जनाकारी लेते रहे। हम भी गुरु गम्भीर हो उन्हें जानकारी देते रहे । अब तो बाबूजी भी नहीं रहे। तो क्या फ़िल्म ,क्या मेला !
इस बार गया था सरस्वती मेला । अब वैसी रौनक नहीं है। लुहार और बढ़ई की दुकान तो नदारत ही हो गयी है जो पहले होली तक रहती थी। जैसे नदियां मर रही हैं उसी तरह मेले भी मर रहे हैं। मेले का मरना एक संस्कृति का मरना भी है।
अब हम न गाँव रहे न शहर हो सके बस त्रिशंकु हो कर रह गए। पूजा की प्रवृति बढ़ी है। दारूबाजी भी ।पर पढ़ने लिखने की प्रवृत्ति खत्म हो गयी। किताब कॉपी अब बस पूजा केलिये निकाली जाती है। नहीं तो मोबाइल जिंदाबाद। सबके हाथ में स्मार्टफोन है ,मुँह में गुटका ।जगह जगह पीक रहे हैं। रंग रहे हैं जीवन को थूक से!
पहले इस मेले में आदिवासी समुदाय के लड़के लड़कियां दिल का आदान प्रदान कर लेती थी। कुछ तो शरीरों का भी । तेल चुपड़े बालों में उड़हुल का फूल खोंसे लड़कियां अपने पारंपरिक परिधान लुंगी में चांद से उतरी परी लगती थी जिसके चेहरे पर निश्छल हँसी हुआ करती थी और शरीर में एक उफान !
आधी आधी रात तक मेला में घुमक्कड़ी होती थी। अभी भी मेरे कानों में मेला से लौटते युवाओं की हँसी ,ठिठोली गूंजती है तो बच्चों की बजाई पिपही भी। पीतल के कनफूल को कानों में झमकाये मज़दूरिनें चेहरे पर एक अलौकिक संतोष की दीप्ति लिए खेतों को जाती मेले की ही कहानी कहती नजर आती थी।
मेला अभी भी लगा हुआ है। कई एक मिठाई की दुकान भी है। कच्ची ,अधपक्की मिठाईयां सजी हुई हैं। अब न मिठाई खाने का वह पहले वाला आग्रह है और न वह स्वाद! पहले तो शुद्ध देसी घी में बालूशाही मिलती थी जिसे खाना अप्रतिम आनंद देता था। पर अब नहीं । ढिरो साव और एक और किसी की दुकान से कुछ मिठाईयां ली। तीन चार किलो जलेबी, तीन किलो बालूशाही और धमदाहा से पांच किलो लड्डू। कुछ को प्रसाद में चढ़ाया कुछ को खाया ,खिलाया !
लौट आया हूँ पटना। मन में एक अजीब उदासी है। लगता है हम बहुत कुछ छोड़ आये अपनी जीवन यात्रा में विभिन्न पड़ाव पर !? शायद इसी तरह की यह होती हो यात्रा ?
कोई जवाब हो तो दीजियेगा?
??

©डॉ. शंभु कुमार सिंह
22 फरवरी,21
पटना
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