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एक प्रेम कहानी

by Dr Shambhu Kumar Singh

मेरा पहला प्यार

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गांव में रहता था तब । इसलिये रहता था कि गांव का ही हूँ । यह नहीं कि शहर से गया और डैडी को जिद कर रहा हूँ कि डैडी, गेंहू का पेड़ दिखा दो उस पर चढ़ गेंहू का फल तोडूंगा! शुद्ध देहाती जीव हूँ । गांव की ही मिट्टी में लोट , खेलकूद बड़ा हुआ । तो ज्यों ज्यों बड़ा हुआ गांव से प्यार बढ़ता गया । गांव की छोरी को भी प्यार करने की ललक उछाल मारने लगी ।
गांव की लड़की भी गंवई ही होती है । शहरी लड़की जैसी नहीं जो आधी हिंदी और आधी इंग्लिश बोलती है । गांव की लड़की तो शुद्ध गांव की बोली बोलेगी और बात बात में अंगुली दांतों के बीच रख इश्श कहेगी । इस इश्श पर ही इश्क कुर्बान हो जाता है और दिल भेंड़ की तरह मिमियाने लगता है ।
गांव की लड़की डिओ भी नहीं जानती । वह जब खिलखिलाती है तो हजारों शहरी डिओ उसकी खुश्बू के सामने बेकार हो जाते हैं । मैं भी जिस लड़की के प्यार में पहले पहल डूबा वह मेरे दूध वाले की बेटी थी । बल्कि मैं तो उस दूध वाले से ही पहले प्यार करने लगा था । वह दूध दही खा गबरू जवान मूल रूप से पहलवान था । और मैं उसे गांव के अखाड़े में लाल लंगोट पहन कुश्ती लड़ते देखता था । क्या प्रेरक व्यक्तित्व था उसका ! अहा ! तो बाबूजी से रो धो कर एक लाल रंग का लंगोट मैं भी जलील दर्जी से सिलवा लिया और लगा कुश्ती लड़ने । ताकत तो थी ही । वह तो दूध वाले अंकल से आता चार किलो भैस के दूध के पुण्य प्रताप था कि मैं भी गबरू होता जा रहा था । स्कूल में जब मन नहीं लगे तो किसी को उठा के पटक देता था । इस का परिणाम यह हुआ कि मेरा भी मन शांत और पटकाने वाले का भी । पर साथ पढ़ रही शांति का मन अशांत । वह दुक्का दू का पहाड़ा तक भूल जाये मेरी कुश्ती कर्म देख । तो इस तरह मैं कुश्ती के अलावा मैथ और भूगोल में भी दखल देने लगा । बच्चे मुझे देख बिहार की राजधानी कलकत्ता बोल देते । पहाड़ा तो पढ़ रहे होते थे पांच का पर बोलते होते थे सात का । तो यह मेरी कुश्ती का प्रताप था कि मैं स्कूल में भी खासे आतंक के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था ।
पर यह कुश्ती प्रेम एक दिन गधे के सिर पर उगे सिंग की तरह विलुप्त हो गया । दूध वाले अंकल से मेरा प्यार ट्रांसफर हो उनकी बेटी पर आ गया । दरअसल एक दिन जब वह दूध देने आई तो मेरे दिल में छाली वाला दही प्यार का जमा कर चली गयी । वह जोरण डाल चली गयी । अब वह रोज आने लगी थी दूध देने । आह ,क्या खुश्बू बिखेरती थी वह जब आती थी ! कभी छाछ सी तो कभी देशी घी जैसी । शहरी डालडा जैसी तो कभी नहीं महकी ।तो हमारा प्यार परवान चढ़ने लगा । कभी कभी वह भैंस चराती मिल जाती स्कूल के पिछवाड़े में । मैं बड़े प्यार से जा उसकी भैंस को प्यार कर आता । इस तरह सुगिया से बात भी हो जाती । हाँ, आप ठीक ही सोचे ,उसका प्यार का नाम सुग्गी था जिसे गांव वाले कुछ ज्यादा प्यार से सुगिया कहते थे ।
सुगिया के नाम अनुरूप ही लाल होठ ! बोलती तो ऐसे लगे जैसे वह मिठू को प्यार का पाठ पढ़ा रही हो ! मैं तो सच में मिठू बन गया था उसके प्यार में । बहुत ही शेरो शायरी रट लिया था । तो प्यार परवान चढ़ने लगा और जो प्यार का क्लाइमेक्स होता है वह होने का समय आ गया । रुत है सुहानी ,चल भाग चले दीवानी ! तो भागने का फुलप्रूफ प्लान डिजाइन किया गया । गांव में ही एक लफंगा भैया थे । उनको भागने भगाने का समृद्ध ज्ञान था । हम दोनों उनकी शरण में जा उनसे दिव्य ज्ञान प्राप्त किये ! भागने का आर्थिक पहलू भी था । बाबूजी रुपया पैसा को संदूक में तीन ताला में रखते थे । तो वहाँ से उड़ाना संभव नहीं था । और दूध वाले अंकल के यहां भी आर्थिक संकट लॉक डाउन टाइप ही । दूध में पानी मिलाते नहीं थे तो पैसा भी पानी की तरह बहाने की स्थिति में नहीं थे । उनकी बेटी को भगाते मुझे पता नहीं क्यों बहुत अफसोस भी हो रहा था । इतने ईमानदार दूध वाले के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए मुझे ! आत्मा तैयार ही नहीं हो रही थी । पर दिल एकदम “कुछ तूफानी करते हैं” पर उतारू ! तो एक दिन रात में भागने का प्लान तय हो गया । आर्थिक संकट का भी निदान निकाल ही लिया । हमलोग प्लान किये कि अंकल की दो भैंस भी रात में खोल लेंगे ताकि उसे बेच कुछ दिन सुख से कटे । सुगिया भी तैयार थी । हालांकि वह बोली कि मईया की प्यारी भैंस नहीं खोलना है । नहीं नहीं ,भैंस मरखंडी नहीं थी । वह तो गाय थी गाय । दरअसल सुगिया अपनी मां को बहुत प्यार करती थी तो बोली कि उस भैंस को नहीं खोलना है ।
आज की रात कयामत की रात थी । पंडित जी को सवा रुपया दे कर मुहूर्त निकलवाया था भागने के लिए । ऐन शुभ मुहूर्त में हम लोग भागने के लिए घर से निकल गए । भागने के मामले में हमलोग कच्चे थे तो फूंक फूंक कर पांव रख रहे थे । बाहर आ दो भैस खोले फिर भागने लगे । भैंस भी चलने लगी । पर कुछ दूर जा भैंस अड़ गयी आगे बढ़ने से । सुगिया भी बहुत कोशिश की कि भैंसिया चल पड़े । पर वह तस से मस नहीं हुई । उसके गले में बंधी घंटी भी बज बज कर माहौल को संगीतमय बना रही थी । सुगिया भी कमाल कर ली थी । झुन झुन बजने वाली पायल पहन चल दी थी । वह भी बहुत बड़ी नौसिखुआ भगोड़ी निकली ! तो इस मधुर ध्वनियों ने दूध वाले अंकल को जगा दिया । सामने से एक खेत चर भैंसा भी झूमता आते दिखाई दिया । एक भैंस तो उसके तरफ भाग गई दूसरी पानी में ।
दूसरे दिन मां हल्दी चूना गर्म करते मेरी चोट देख रो रही थी । मैं भी मां को रोते देख वादा किया कि अब ऐसी गलती नहीं करूंगा । इस तरह मेरे पहले प्यार का अंत हुआ । सबकुछ पूर्ववत ही रहा बस अब जो दूध अंकल देते थे उसमें आधा पानी मिला रहता था !
(यह काल्पनिक प्रेम कथा मेरी सभी भूतपूर्व प्रेमिकाओं के अभूतपूर्व प्रेम को समर्पित !)
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
(अवकाश प्राप्त एक प्रेमी)
पटना , 17 जून, 2020

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