समय था 1972 । तब कुकर उतना लोकप्रिय नहीं था बल्कि बहुत लोग तो इसके बारे में जानते भी नहीं थे। तभी हमारे घर एक कुकर आया था प्रेस्टिज का। साढ़े छः लीटर का हाई डोम मॉडल। मूल्य 172रुपए। लाइफ लॉन्ग गारंटी वाला। वह कुकर गांव में अभी भी है। सच में , अभी तक उसमें कोई बहुत बड़ी खराबी नहीं आई है।
तब कुकर के क्षेत्र में दो कंपनियां ही थी। एक प्रेस्टिज और दूसरी होकिंक्स। तब प्रेस्टिज ज्यादा पॉपुलर था। इसके भी दो ब्रांड्स थे, देसी बाजार हेतु प्रेस्टिज और विदेशी बाजार हेतु प्रीत।
कुकर जब गांव आया तो यह हमारे गांव वालों केलिए अजूबा ही था। अगल बगल की महिलाएं इसे देखने भी आती थी। उनको लगता था इसमें केवल अनाज रख देने से ही भोजन पक जाता है। पर बात ऐसी नहीं थी। इसे भी आंच पर चढ़ाया जाता था। यह जान देखने आने वाली महिलाएं जो इसे जादुई बरतन समझती थी, बड़ी मायूस होती थी और हमसबों को कहती थी अईसन काम तो बटलोही भी कर देता है तो इसकी क्या जरूरत!
दरअसल गांव में तब खाना बनाने की हड़बड़ी नहीं होती थी। बड़े ही आराम से लकड़ी के ही चूल्हे पर खाना बन जाता था जबकि तब इतनी सुविधाएं भी नहीं थी। कुछ के घर तो आठ बजे सुबह ही खाना बन जाता था जबकि उनके यहां महरी आदि आती भी नहीं थी। यह बात हम सबों को अचंभित करती थी क्योंकि महरी और नौकरों के बावजूद मेरे यहां भोजन दस के पहले नहीं बनता था। हमलोग ब्रेकफास्ट में रोटी, सब्जी, चिउड़ा दही और मौसमी फल आम आदि ले लेते थे।
हमारे यहां कोयले पर खाना नहीं बनता था। कोयले पर खाना बनाने से कुकर में सहूलियत होती थी। गांव में जलावन की दिक्कत हमें नहीं थी। बनमहुआ, शीशम आदि लकड़ियों के जलावन हमेशा घर में उपलब्ध रहता था। फिर भी तब कुकर केलिए मिट्टी तेल के स्टोव और कुन्नी वाले चूल्हा की व्यवस्था की गई थी।
एक बार कुकर चूल्हा पर चढ़ा हुआ था उसी वक्त बगल वाली भाभी आई हुई थी और चूल्हे के निकट बैठी हुई थी। तभी कुकर सीटी दे दिया। भाभी तो इतनी डरी कि चूल्हे के निकट ही गिर गईं। बाद में हम सबों पर गुस्साई भी। बोलीं, ऐसा भी कहीं पकाने का बरतन होता है, हार्ट फेल करा देगा!
यह कुकर बहुत दिनों तक दूसरों की भी सेवा की। यह हमारे रिशेदारों और मित्रों में कई एक डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर , प्रशासनिक अधिकारियों की सेवा में भी रहा। बहुत दिनों तक मेरी सेवा में। मैं जब पटना में अकेले रहता था तो कुकर ले आया था।
इस बार जब पूर्णिया गया तो एक दूसरे कुकर से पाला पड़ा। गांव में गैस चूल्हे पर जब चढ़ाता तो कभी पानी लीक कर जाता या भाप निकल जाता। श्रीमती जी बोली कि गासकेट खराब होगा, चेंज करवा लीजिए। वह भी किया गया पर सुधार नहीं हुआ। बड़ी दिक्कत हुईं। मैं अमूमन दूसरे के यहां नहीं खाता तो कभी कच्चा तो कभी जला भोजन मिलने लगा।
इस बार पटना आने पर इस समस्या से श्रीमती जी को अवगत कराया। परिणाम आज ही एक तीन लीटर का कुकर खरीद कर लिया गया है। अगली पूर्णिया यात्रा में असुविधा की कोई गुंजाइश नहीं लगती है।
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डॉ शंभु कुमार सिंह
पटना
27 मई, 24
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