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मधुमक्खी और हम

by Dr Shambhu Kumar Singh

मधुमक्खी दिवस पर विशेष !

हर साल 20 मई को विश्व स्तर पर World Bee Day यानि विश्व मधुमक्खी दिवस मनाया जाता है। आज के ही दिन यानि 20 मई को, आधुनिक मधुमक्खी पालन की तकनीक का जनक कहे जाने वाले एंटोन जान्सा का जन्म 1734 में स्लोवेनिया में हुआ था। मधुमक्खी दिवस को मनाए जाने का उद्देश्य पारिस्थितिकी तंत्र के लिए मधुमक्खियों और अन्य परागणकों के महत्व, योगदान और उनके संरक्षण के बारे में जागरूकता बढ़ाना है। दुनिया के खाद्य उत्पादन का लगभग 33% मधुमक्खियों पर निर्भर करता है, इस प्रकार वे जैव विविधता के संरक्षण, प्रकृति में पारिस्थितिक संतुलन और प्रदूषण को कम करने में भी सहायक है।
हमारे जीवन में मधुमक्खियों के महत्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों ने दिसंबर 2017 में स्लोवेनिया के प्रस्ताव पर 20 मई को विश्व मधुमक्खी दिवस के रूप में मनाए जाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। इस प्रस्ताव ने विशिष्ट संरक्षण उपायों को अपनाने और मधुमक्खियों के संरक्षण और मानवता के लिए उनके महत्व पर प्रकाश डाला। पहला विश्व मधुमक्खी दिवस 20 मई 2018 को मनाया गया था। पर 20 मई, 2020 को संपूर्ण विश्व में पहला ‘विश्व मधुमक्खी दिवस’ (World Bee Day) मनाया गया। यह दिवस मधुमक्खियों एवं परागणकों के महत्व, सतत विकास में उनके योगदान तथा उनके संरक्षण के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है।
मधुमक्खियों की परागण और खाद्य उत्पादन में वृद्धि करने की भूमिका को वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन तक ने सराहा है। मधुमक्खीपालन से शहद के अलावा ‘प्रोपोलिस’ (छत्ता गोंद), रॉयल जैली (रानी मधुमक्खी का भोजन), मोम, डंक (वेनम), पोलन (पराग कण) जैसे महंगे उत्पादों को निकालने के तरीके विकसित हुए जिसके बारे में जागरुकता बढ़ने से किसान लाभान्वित हो रहे हैं।
आज मधुमक्खियों के साथ विभिन्न कीटों पर संकट पहले की तुलना में हजार गुणा हो गया है। यह बात पूरी मानव जाति के लिए खतरे की घण्टी है। पतंगों ,मधुमक्खियों , तितलियों पर मानव जनित संकट का परिणाम है कि आज लगभग 17 प्रतिशत ये कीट विलुप्त हो चुके हैं। मैं खुद जब अपने बचपन को याद करता हूँ तो अपने फार्म हाउस पर मेरे घर के बगल में पीपल के पेड़ पर लगे मधुमक्खी के छत्ते की एक बड़ी तस्वीर यादों में बनती है। सच में तब ये छत्ते बहुत बड़े होते थे। मधछोरवा से इससे मधु निकलवाया जाता था। पर यह ख्याल जरूर रखा जाता था कि मधुमक्खियों की हत्या न हो। इसके लिए वहाँ कुछ जंगली पौधों को जला कर धुंआ किया जाता था ताकि मधुमक्खियां उड़ जाएं और मधु के छत्ते को काट कर मधु निकाल लिया जाता था। शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि शहद के छत्ते की जड़ से छह से दस इंच के क्षेत्र में ही रानी मधुमक्खी रहती है और जब शहद निकाला जाता था तो उनके निवास स्थान को सुरक्षित रखा जाता था अर्थात उनको काटा नहीं जाता था कारण की आगे मधुमक्खियां वहाँ से भाग नहीं जाएं।
बाद के दिनों में जानकारी के अभाव और लोलुपता के बढ़ते प्रकोप के कारण आम लोग इस जानकारी को सहेज नहीं सके और मधु के छत्ते को पूरे जड़ से काट देते रहे जिसका परिणाम यह हुआ कि रानी मधुमक्खी भी मर जाती रही है और फिर उनकी नई कॉलोनी नहीं बस पा रही है। यह तथ्य सचमुच बहुत ही घातक है। मधुमक्खियों की संख्या में कमी के बहुत से अन्य कारण भी हैं। अपने बिहार में खासकर सीमांचल में मकई की खेती में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग बढ़ा है जिसका परिणाम यह हुआ कि दुश्मन कीटों के साथ मित्र कीटों की भी समाप्ति हो गयी है। यह बात केवल मकई की ही खेती में नहीं देखें वरन सम्पूर्ण खेती में, हर फसल में कीट प्रबंधन का अवैज्ञानिक प्रयोग ने मधुमक्खियों को समाप्त किया है।
पेडों में खासकर आम और लीची के बगीचों में रासायनिक कीट नाशकों का अंधाधुंध प्रयोग भी उनके फूलों या मोजरों से उत्पादित शहद की अनुपलब्धता उत्पन्न किया है। आज स्थिति यह है कि नैसर्गिक रूप में बाग, बगीचों ,जंगलों में पाए जाने वाले मधुछत्ते अब देखने को भी नहीं मिलते। यह बहुत ही दुखद स्थिति है। हम जानते हैं कि मधुमक्खी से ही मानवजीवन का अस्तित्व है। अगर मधुमक्खियां न रहें तो यह मानवजीवन भी नहीं रहे। फसलोत्पादन में मधुमक्खियां ही परागण कर सहयोग करती हैं और उनपर आये आज के संकट हमारी खेती को चौपट कर सकता है बल्कि चौपट कर भी दिया है।
आज समय की मांग है कि हम मधुमक्खियों को बचाने हेतु सक्रिय हों और कुछ ऐसे कदम उठाएं जिससे मधुमक्खियों का संरक्षण हो और प्रकृति फिर से मुस्कुरा सके। हमें इसके लिए ज्यादा से ज्यादा विभिन्न पेड़ पौधे लगाने हैं जिनसे सालों भर उन्हें फूल मिलते रहें। इस लिए हमें किस्म किस्म के पेड़ पौधों का चयन करना होगा। हम ग्रामीण स्तर पर भी उत्पादित रॉ शहद का उपयोग अधिकाधिक करें ताकि आदिवासियों एवं अन्य ग्रामीणों के द्वारा शहद उत्पादन को प्रोत्साहन मिल सके। हमें हर्बिसाइड, पेस्टीसाइड, फंगीसाइड के अलावा खेती में रासायनिक उर्वरकों की खपत कम करनी होगी। हमें जंगली या नैचुरल मधुछत्तों को बचाना होगा ताकि मघुमक्खियों की संख्यां में बढ़ोत्तरी हो। हम इस हेतु बी हाइव को स्पॉन्सर भी कर सकते हैं। गर्मी के दिनों में मध्यमक्खियों हेतु पानी भी रख सकते हैं। जब प्रकृति में फूलों की कमी हो तो उनके भोजन हेतु हम चीनी के घोल को भी उनके लिए घर के बाहर या बाग बगीचों में रख सकते हैं। मध्यमक्खियों के जीवन चक्र , उनकी हमारे जीवन में उपयोगिता ,पारिस्थिकी के लिए उनके अस्तित्व पर हमें जन जागरूकता भी बढ़ानी होगी। हमें स्थानीय समुदाय खासकर आदिवासी समुदाय को जागरूक और आर्थिक स्तर पर सबल करना होगा क्योंकि यही वे लोग हैं जो मध्यमक्खियों से ज्यादा प्यार करते हैं और उनके निकट निवास करते हैं। तो इतना या इनमें से भी कुछ भी हम कर लें तो हम प्रकृति को नष्ट होने से बचा सकते हैं।

तो लीजिये एक संकल्प कि हम प्रकृति सौम्य जीवन जिएंगे और अपने आहार,विहार एवं व्यवहार को इस हिसाब से तय करेंगे कि मध्यमक्खियों का नाश न हो और हमारे जीवन में मधु की मिठास बनी रहे !

©डॉ. शंभु कुमार सिंह
20 मई, 21 , पटना
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www.prakritimitra.com

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