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मेरी दादी और चीटियाँ

by Dr Shambhu Kumar Singh

मेरी दादी रोज सुबह नहा कर सूर्य नारायण को जल अर्पित करती थी । हनुमान जी के धाजा के निकट । तुलसी चौरा में भी पानी दे देती थी । फिर चींटियों को गुड़ या आटा देती थी खाने को । कभी कभी लवाठी भी । ओ, लवाठी नहीं जानते हैं ? लवाठी मकई के आटे को चालने पर प्राप्त मकई के लावा का सफेद कण होता था जो बहुत ही हल्के होते थे । अब बच्चे शायद नहीं जान पाएं इन चीजों को क्योंकि मॉल में यह मिल जाता है । पर कैसे बनता था और कितने इसके निर्माण के आयाम होते थे उनसे शायद ही ये बच्चे रूबरू हों ?
तो आटा,चीनी ,लवाठी ,गुड़ जो भी उपलब्ध हो चींटी को मिल जाता था । हम बच्चे कौतूहल से उन चींटियों को देखते थे । कि कैसे चीटियाँ एक लाइन में अनुशासित हो उन खाद्य पदार्थों को ले जाती थी । कहीं कोई झगड़ा फसाद नहीं ! चीटियाँ भी भिन्न भिन्न किस्म की होती थी । कोई लाल ,कोई काली ,कोई बहुत ही छोटी तो कोई बहुत ही बड़ी । पर सभी मेहनती । मेरी दो छोटी बहनें भी इन चींटियों को गौर से देखती थी । कभी कभी एक दो चींटी हमलोगों को काट भी ले पर हम कभी उनपर नाराज नहीं हुए । जीवों के प्रति प्रेम का अलग ही भाव हमारे दिल में निर्मित था । ये निर्माण हमारी माँ ,दादी ,बाबूजी कर रहे थे । तो हमने राह चलते किसी कुत्ते को लात नहीं मारी ,न किसी मेढ़क को ढेला । कौवों को उनकी बदमाशियों के बाबजूद रोटी के टुकड़े दिए ।
बाद में जब हम बड़े हुए तो करुणा और दया के भाव के साथ प्रेम का भाव हमारे दिल से विलोपित नहीं हुआ । क्योंकि जिस मिट्टी से हमारा निर्माण हुआ था वह मिट्टी कभी इसकी इजाजत नहीं दी ।
आज भी हमारी सब बहनें जब राशन का लिस्ट बनाती हैं तो कौवों ,कबूतर ,गिलहरी, चींटी आदि के परिवारों की जरूरत के सामानों को भी शामिल करती हैं । उनके बच्चे भी उन्हीं की राह पर हैं । हम और हमारे बच्चे भी । कभी कभी मेरी छोटी बेटी,आयुषी जब पढ़ कर आती है तो मुझे आनंदित कहती है कि रास्ते में उसे एक डॉगी मिला । मैं पूछता हूँ , तो क्या तुम डर गई ?
नहीं पापा , मैं उससे पूछी कि कैसे हो ? वह तो दुम हिलाते मेरे पीछे पीछे चलने लगा । फिर मैं उसे एक डिब्बा बिस्किट खरीद दे दी । वह उसे इतनी खुशी से ले कर भागा कि क्या कहूँ पापा ! वह डॉगी बहुत खुश हुआ । मम्मी कल से तुम दो रोटी देना उसके लिए !
मैं अपनी बेटी की आंखों में देखता हूँ ,खुशियों का आकाश । एक सुंदर दुनिया का होते निर्माण । अपनी दादी को हाथ में लिए गुड़ । यही तो सबसे बड़ी खुशी है जो पैसों से भी नहीं मिलती । मैं अपनी बेटी की इस खुशियों की दुनियां में खुद को खोते देख रहा हूँ जैसे पानी मे घुल रही हो मिसरी कोई !
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
4 जून ,2021
पटना

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