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मूंग की खेती

by Dr Shambhu Kumar Singh

मूंग

बचपन से ही मूंग की खेती होते देखता आ रहा हूँ। हमारे यहां पूर्णिया में अप्रैल के प्रथम सप्ताह में मूंग को बोया जाता है और जून के अंतिम सप्ताह तक इसकी दो तुड़ाई कर ली जाती है। फिर जुलाई में इसी खेत में धान की फसल ली जाती है। वैशाली जैसे जिलों में मूंग को मार्च में बोआई कर दी जाती है। यहाँ उपरवार के अलावा चौर में भी मूंग की खेती लोग कर देते हैं। यहां के किसान मूंग के साथ मकई और जनेरा जरूर बाओ करते हैं ताकि जानवरों हेतु हरियरी मिल जाये।

पूर्णिया के मूंग का स्वाद अद्भुत होता है। इसका बीज देशी होता है । हम अपने सहेजे हुए बीज से ही इसकी खेती करते हैं। मूंग में भी तथाकथित उन्नत बीज या संकर बीज आ गए हैं पर अभी भी किसान अपने परंपरागत बीज से ही इसकी खेती करते हैं। मूंग की तोड़ाई बड़ी ही रोचक ढ़ंग से होती है। एक एक फली को तोड़ा जाता है फिर तुड़ाई करने वाले को बन दिया जाता है। यह बन आठ हिस्से में एक होता है पर मज़दूरिनें एन केन प्रकारेण लगभग तिहाई हिस्सा ले लेती हैं। मूंग की खेती किसान यूं ही कर लेते हैं। इसमें ज्यादा मिहनत करने की जरूरत नहीं होती । यह बहुत फायदे की खेती नहीं होती हमारे यहाँ पर ऐसी भी बात नहीं कि इसकी खेती से कोई फायदा नहीं होता! सबसे बड़ी बात तो यह कि साल भर सुस्वादु दाल मिल जाती है खाने को । ज्यादा हुआ तो बेच भी देते हैं। कुछ रुपये भी मिल जाते हैं। खुद मुझे 50 – 60 मन मूंग हो जाता था पर धीरे धीरे इसकी खेती कम होती गयी। जैसे अन्य दलहनों की खेती कम हुई है ,इसकी भी हुई है।

पूर्णिया में फसल चक्र बदला है। अब गेंहू की खेती कम होने लगी है। तो मूंग की खेती भी कम होने लगी। खेत ही खाली नहीं मिलता । लोग मूंग के बदले मकई की खेती करने लगे। काफी पैसा आ जाता है। धनकटनी के बाद मकई लगाने की प्रथा शुरू हुई तो मूंग केलिये खेत ही खाली नहीं मिला। तो अब तो मुझे भी मूंग खरीद कर खाने की नौबत आ गयी है।

मूंग की दाल बहुत ही पौष्टिक होती है। स्वाद भी लाजवाब। वैसे तो सभी दालें प्रोटीन से भरपूर और सेहत का खजाना हैं, लेकिन इन सब में मूंग की दाल को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसमें विटामिन ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’ और ‘ई’ की भरपूर मात्रा होती है। साथ ही पॉटेशियम, आयरन, कैल्शियम मैग्नीशियम, कॉपर, फोलेट, फाइबर की मात्रा भी बहुत होती है लेकिन कैलरी की मात्रा बहुत कम होती है। बचपन में बुखार के बाद मूंग की दाल और रोटी का पथ्य मिलता था। जिसे हम ऐसे खाते थे मानो कोई अमृत परोस दिया हो! इसमें कोई रासायनिक उर्वरक नहीं दिया जाता था तो उन प्रदूषणों से भी यह मुक्त हुआ करता था। मूंग को अंकुरित कर भी खाइये ,बहुत मजेदार लगता है। इसका दालमोठ भी बनता है और देश की बड़ी बड़ी कम्पनी इसको बनाती है। मूंग की दाल के पापड़ भी मिलते हैं तो बड़ी भी। इसके बेसन से लड्डू और हलवा भी बनाया जाता है। आप चाहें तो पकौड़ी भी तल लें, कुरकुरे बनते हैं। मेरे यहाँ उड़द के अलावा मूंग के भी दही बड़े बनते हैं क्योंकि मैं उड़द का नहीं खाता।

अब मूंग की उत्पादकता कमी है। खेती इसकी बाधित हुई है। इस बार यास तूफान ने मूंग किसानों की आस को बुरी तरह छिन्न भिन्न किया है। कोई मुआवजा भी नहीं। यही हाल रहा तो,मुझे ऐसा लगता है कुछ दिनों में मूंग के देशी बीज भी नहीं मिलेंगे ? संकर बीज के उत्पाद स्वादिष्ट नहीं होते बल्कि उनका दालमोठ बनाना फायदेमंद होता है। हम चाहेंगे कि मूंग की खेती खूब हो। यह प्रकृति सौम्य खेती है। इसकी खेती में न ज्यादा उर्वरक लगता है न पटवन की जरूरत पड़ती है। इसकी खेती से मिट्टी का स्वास्थ्य भी ठीक रहता है क्योंकि इसकी जड़ से मिट्टी को पोषण मिलता है। इसकी पत्तियां टूट कर मिट्टी में मिल खाद का निर्माण करती हैं। तो कभी इसकी खेती का भी सोचें, बहुत खुशी मिलेगी।
पृथ्वी माता आशीष देंगी!
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
7 जून, 21
पटना

(तस्वीर मेरे खेती पर की है जो 2018 की है। उस साल के बाद खेती और खराब हुई है और अब लगभग नगण्य खेती होने लगी है!)

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