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शहर का जाड़ा

by Dr Shambhu Kumar Singh

शहर का घूरा!

जाड़े में गांव में रहना स्वर्ग में रहने जैसा है। खुला वातावरण। खुला आसमान ! और उस आसमान से झांकता सूरज ! गुनगुनी धूप में करुआ तेल लगा कर दोपहर को लमलेट होना ऐसा लगता था कि इंद्रासन पर सोए हुए हैं। सोने में सुहागा तब और जब पुआल के गद्दा पर चादर बिछी हुई हो !
गांव में सूरज की बेशुमार धूप के साथ घूर के आनंद का मजा भी कुछ और होता था। घूर या घूरा गांव का मिनी चौपाल होता था। चौपाल बोले तो वहे, पार्लियामेंट! त पूरा अड़ोस पड़ोस के लोग जुटते थे और घूर तापा जाता था। घूर में धान की खखरी पूरा डाला जाता था फिर गोबर की करसी। करसी या कंडा गोइठा नहीं होता था बल्कि गोबर का अनगढ़ सूखा रूप। गोइठा नहीं समझे? उपला । वेबसाइट पर डंग केक कर के बिकता है वही! तो कुछ करची और संठी भी डाला जाता था घूर पर उसे सुलगाने के लिए। घूर धनक कर लह लह करने लग जाता था। लकड़ी या चैला का खुररूल्ली भी उसमें डाला जाता था।
हम लोग पुआल के मोढ़ा पर बैठे उसका आनंद लेते थे। बड़े बुजुर्ग देश दुनिया की कितने ही कहानियां तब तक बांच देते थे। हम संठी को सुलगा कर लुत्ती लुत्ती खेलते थे फिर बाबूजी या कोई अन्य बड़े बुजुर्ग हमारे कान उमेठ हमारी बुद्धि में गर्मी पैदा करते थे। कुछ लुकारु टाइप लड़का संठी का नवाचारी प्रयोग भी कर देता था !
एक पोर्टेबल घूरा भी होता था जिसे हम बोरसी कहते थे। बोरसी में भी वही करसी, खखरी या धान का भूसा साथ ही लकड़ी के कोयले डाले जाते थे। मेरी दादी के लिए इसे हमलोग तैयार करते थे। दादी उसी से आग निकाल हुक्का भी पी लेती थी जिसे हम तब नारियल बोलते थे। चिलम में तम्बाकू का एक गुड़ के साथ का मिश्रण डाला जाता था फिर उस पर जलते कोयले डाले जाते थे। दादी जब हुक्का पीती थी ,गुर्र गुर्र तो लगता था कोई अलौकिक संगीत बज रहा हो !
इस घूर और बोरसी के निकट हमने न जाने कितनी कहानियां सुनी। राजकुमार जंगल में भटक रहा है और तभी एक राजकुमारी मिल जाती है उसे। उसके हाथ में स्वर्ण कमल है।भइया का पूरा ध्यान कहानी की राजकुमारी पर उधर होता था इधर तभी कोई लुत्ती उड़ बड़के भैया के हाथ पर पड़ती थी । वह बिलबिला उठते थे। खाना का समय होते ही घूरा चौपाल विसर्जित हो जाता था!
सुबह घूरा जिंदा ही रहता था। भूसे की आग को कोड़ने पर दप दप लाल सोना चमकता नजर आता था। हमलोग उसमें अलुआ पकाते थे तो कोई चाय ही बना डालता था। सोंधी सोंधी महक के साथ अलुआ का भोग लगता था।
पर हम ये कहाँ आ गए? न वो घूरा न वैसी धूप! फ्लैट की जिंदगी ने जीना मुहाल कर दिया। सपना था कि शहर में एक मकान हो पर यह तो दड़बा है दड़बा!
अब रूम हीटर को जला ताप रहा हूँ। बार बार बिजली मीटर की तरफ नजर चली जाती है। कोई सुकून की जिंदगी नहीं। गांव में घूरा के पास कुत्ते बिल्ली को भी शरण मिल जाती थी। यहाँ रात भर बिल्ली की तड़पने की आवाज आती है। कुत्ता किकियाता दिखता है। घूरा भी एक मुखी है। कभी पत्नी अपने तरफ खिंचती हैं तो कभी मैं। क्या जिंदगी है?
पता नहीं कब जाड़ा खत्म होगा ?
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
24 दिसम्बर,20
पटना

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