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हम देहाती

by Dr Shambhu Kumar Singh

हम देहाती जनम जनम के

हम निरे देहाती हैं।अंदर बाहर दोनों से। सोच भी देहाती ,भाषा भी देहाती , रंग रूप भी देहाती ! अब भूँजा खाते हैं तो लोग बोलते हैं बहुत बड़ा देहाती है। पिज्जा ,बर्गर तो कभी चखा नहीं। मैं क्या मेरे पिता ,दादा किसी ने भी पिज्जा खाने को क्या कभी इसका नाम भी नहीं सुने थे! तो उन्हीं की संतान हैं हम, निरे देहाती!
1981 का साल रहा होगा। मेरी बूढ़ी दादी जो तब 95 साल की थी गांव में रहती थी। गांव में इसलिए रहती थी कि गांव ही सुंदर था हमारा। बड़ा सा आँगन, बड़ी बड़ी कोठरियां। लकड़ी के चूल्हे पर पकते स्वादिष्ट और शुद्ध भोजन।उबल कर उफनता देशी गाय का दूध ! ऐसा नहीं कि हमारे गांव के लोग शहर में नहीं रहते थे! बम्बई ,दिल्ली ,कोलकाता में भी लोग रहते थे। तब भी और अब भी।गांव में एक थे फुदैनी चचा। वह बम्बई में रहते थे। वहीं कहीं किसी रेडीमेड कपड़े के कारखाना में काज बटन का काम करते थे। एक खोली भी थी उनकी। तो उस साल सपरिवार आये थे गांव। बेटी की शादी करनी थी। रिंकी उनकी बेटी। गांव में जब घूमती सभी लोग उसे आदर की नजरों से देखते। शहरी थी न! वह भी पटनिया नहीं , बम्बईया! हमलोग तब थे छोटे । सोचते यह तो रोज अमिताभ बच्चन और रेखा को देखती होगी? समंदर को भी। बहुत बातें दिमाग में घुमड़ती रहती थी। हमारे ही नहीं सभी के दिमाग में! बम्बई से आया मेरा दोस्त ,दोस्त को सलाम करो। सभी बच्चे उसके पीछे पीछे चलते जहाँ वह जाती। एक बार मेरे यहाँ भी आई। दादी से हाथ मिलायी। जब हमारे यहाँ से गयी तो दादी मुझसे पूछी कि बउआ,वह मेरा हाथ खींच क्यों हिला दी?मैं हँसते बोला,दादी ,वह हाथ मिलाई है ,समझो तुमको प्रणाम की है! दादी मुस्कुराई ,बोली तो ऐसा काहे प्रणाम करती है कि आशीर्वाद देने वाला समझे भी नहीं? क्या कहता दादी को? इतना ही कहा,दादी,हमलोग कैसे समझेंगे,देहाती जो हैं! दादी खूब हँसी ,बोली हम देहाती ही भले!
दअरसल हम देहाती थे तो देहात के ही स्कूल में पढ़े। ले बोरा, झोला स्कूल को दौड़ते थे।छठी कक्षा से अंग्रेजी पढ़े।शहरी बच्चा तो जन्मते ही बाय बाय ,टाटा करने लगता है।पर हम शहरी बच्चे की तरह मां बाबूजी से कभी नहीं पूछे कि पंचानवे क्या होता है? क्योंकि हम यह भी जानते थे कि पंचानवे को नाइंटी फाइव भी कहा जाता है। कांवेंटी बच्चे तो कैमल समझ जाते हैं पर ऊंट नहीं। जिंजर पर अदरख नहीं। हम देहाती अदरख भी जानते तो जिंजर भी। बोर्ड में हिंदी में पचासी लाते तो अंग्रेजी उससे कम नहीं। पर हैं तो देहाती ही न ?
गांव से पढ़ दिल्ली विश्वविद्यालय हो या जे एन यू हर जगह चले जाते। कंधे उचका कर नहीं बोल सकते थे पर सिर उठा कर जरूर बात करते ,भले हम देहाती थे! अंग्रेजी डांस भी कर लेते और होली के दिन गोबर माटी भी। भोजपुरी गीत भी पूरा गला फाड़ गा लेते थे। लोग सुन मुस्कुराते और बोलते ,अरे देहाती है! सच हम देहाती ही हैं।
संगी साथी के साथ घर से लाये ठेकुआ बांट खाते। खेलकूद में आगे। मारपीट में भी भागते नहीं।कोई लटपट नहीं रखते। रोज मां बाबूजी को पोस्टकार्ड लिखते। फोन तो देखे भी नहीं थे। आखिर देहाती ही तो थे।
एक घटना याद आ रही आज इसी देहातीपने पर।मेरे नाना जी थे तो देहाती पर दिखते थे महा देहाती। खेतिहर। घुटने तक धोती। हाफ बांह का कुरता। सिर पर मुरैठा। हाथ में बांस की एक लाठी। कमर में बटुआ उसमें कुछ रुपये। न लिखने आवे,न पढ़ने। पहले छत्तर मेला सभी जाते थे, नाना भी जाते थे। 1945 की घटना है। नानाजी खूब घूमे मेला। फिर मीना बाजार। एक दुकान पर ठिठक गए । वह थी ग्रामोफोन की दुकान। पीतल के भोंपू और गीत के काले तवे। तवे को स्प्रिंग वाले हैंडल से घुमाओ फिर सुई लगी चोंगा को उस पर रखो और मगन गाने सुनो। नाना को अद्भुत लगा यह गीत गाता बक्सा! मंत्रमुग्ध सा देखते रहे! फिर दुकानदार से पूछे ,बउआ ,ई कितना में बेचते हो? दुकानदार पहले उनको एक बार ऊपर से नीचे तक देखा और हँसते हुए बोला, तुम यह लोगे? अरे आगे बढ़ो।आगे बढ़ो। पर नानाजी दुकान पर खड़े ही रहे। बोले कि बउआ, खाली दाम बता दो ?
दुकानदार बोला कि अरे आगे बढ़ो। तुम खरीदोगे यह। आईना में मुँह देखा है? अपनी औकात देखो! कुछ सूटबूटधारी भी नानाजी को विस्मित देख रहे थे। पर नाना तो निरा देहाती,किसान भी। हिम्मत नहीं हारने वाले। फिर एक बार बोले ,बेटा, कमसेकम दाम तो बता दे इसका ? अब दुकानदार गुस्सा गया,बोला ,अरे तुम नहीं मानने वाले हो । तो सुनो है दम तो निकालो दो सौ रुपया और पूरी दुकान ले लो। करीब एक दर्जन ग्रामोफोन सेट दुकान में रखी हुई थी। नाना फिर बोले, दो सौ में पूरी दुकान ? सोच लो बउआ एक बार फिर?
दुकानदार बोला ,अरे तुम सोच । मैं अडिग हूँ। निकाल दो सौ रुपये और ले जा पूरी दुकान। मैं दे दूंगा , नहीं दिया तो दो सौ जूते मुझे मारना। ये सभी लोग जो दुकान पर खड़े हैं गवाह हैं। पर पहले निकाल तो दो सौ रुपये?
अब नानाजी की बारी थी। अंटी से पचास रुपये निकाले। बटुआ से तीस। ऊपर वाले जेब से बीस। फिर धोती के खूंट से कुछ रुपये। कुछ झोले से भी और गिन दिए दो सौ रुपये। अब तक दुकान पर भीड़ लग गयी थी। दुकानदार को भी दाँती लग रही थी। वह हक्काबक्का ! अब उसके तेवर बदले बदले थे। वह गिड़गिड़ा रहा था। तब तक हमारे ननिहाल के बहुत से लोग दुकान पर नानाजी को खोजते आ गए थे। नानाजी ने मेरे मामा को कहा कि दुकान समेट बैलगाड़ी पर लादो। दुकानदार तो अकबक दो सौ रुपये गिन रहा था! सभी ग्रामोफोन नानाजी ने गांव में बांट दिया । दो अपने पास भी रख लिए। मैं अपने बचपन में वह सेट देखा हूँ। बजाया भी हूँ।
“बरसात में हमसे मिले तुम सनम, तुम से मिले हम ,बरसात में !”
हम देहाती भी कभी कभी ग़जब्बे करते हैं!
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
17 नवम्बर,2020,पटना

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