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मैं और पत्रकारिता

by Dr Shambhu Kumar Singh

हिंदी पत्रकारिता और मैं

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मैं अपने पिता जी का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे बचपन से ही पत्र पत्रिकाओं को पढ़ने का माहौल दिया । हमलोग किसान परिवार से हैं । बचपन गांव में बिता। क्या जमींदार क्या मजदूर सब का बच्चा बोरा ले स्कूल जाता था । माँ के हाथों सिले झोले में करीने से सजाए किताब ,कॉपी । उसी में किसी पन्ने के बीच मोर पंख । तो ऐसे माहौल में भी हम हाँ, केवल हम भाई बहन बाल पत्रिकाएं पढ़ पाते थे तो उसका पूरा श्रेय बाबूजी को है । वो कुछ लाएं बाहर से या नहीं हमलोगों के लिए पत्रिकाएं जरूर लाते ही थे । हम भाई बहन शांति से उन पत्रिकाओं को पढ़ते थे ,कभी कभी कोई एक मूल पाठक होता था दूसरा बगल में बैठा नजर गड़ाए हुए है जैसे रेलगाड़ी में अखबार पढ़ रहे हों ! कभी कभी पढ़ने हेतु शीत युद्ध की भी स्थिति बनती थी पर बड़े उसे हल्दीघाटी का युद्ध होने से बचा ले जाते थे ।
बाबूजी बाहर से आते तो रेलवे स्टेशन पर स्थित बुक स्टॉल से पत्रिकाएं जरूर लाते थे । सेव,नाशपाती और नारंगी भी । कुछ नई सब्जियां भी । वो टॉफी कभी नहीं लाते थे । बदले में पत्रिकाएं और फल । हम भी ऐसे कि फलों को छोड़ पहले पत्रिकाओं पर टूटते थे ।
कहानियों, कविताओं में खोते थे । आपस में चर्चा भी करते थे । देश दुनिया की नई नई जानकारियां हम से रूबरू हुआ करती थी । पढ़ने के बाद हम पत्रिकाओं को फेंकते नहीं थे वरन सहेज कर रखते भी थे ।
पढ़ने के अलावा पत्रिकाओं में हम बच्चों हेतु करने के काम भी हुआ करते थे । रंग भरो प्रतियोगिता है तो कहीं वर्ग पहेली हल कर रहे हैं । कहीं अधूरी कहानी पूरी कर रहे हैं तो कहीं कागज से कोई क्राफ्ट बना रहे हैं । पत्र मित्र स्तंभ भी होता था किसी किसी पत्रिका में । तो हम मित्रों को पोस्टकार्ड भी लिख रहे होते थे । अद्भुत दुनिया थी हम बच्चों की । जब बड़े हुए तो पत्रिकाओं में भी अंतर आया और हम दिनमान, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका ,धर्मयुग ,कादम्बिनी, नवनीत जैसी पत्रिकाओं से भी जुड़े । अब हम भाई बहनों का युद्ध बाबूजी से होने की स्थिति बन गयी थी क्योंकि सब पहले उसे पढ़ना चाहता था । बाबूजी इसमें होशियारी करते थे ,वे पहले हमलोगों को ही पढ़ने देते थे । वो दो तीन पत्रिकाएं भी लाते थे तो तनाव की स्थिति बनती नहीं थी । कोई धर्मयुग में लीन है तों कोई दिनमान में ।
इन पत्रिकाओं ने हमारे व्यक्तित्व को संवारा । ज्ञान के भंडार को समृद्ध किया । बहुमुखी प्रतिभा को एक अलग चमक दी । बाद में अंग्रेजी पत्रिकाएं भी पढ़ी पर बुनियाद इन्हीं हिंदी पत्रिकाओं की दी हुई है ।जो आज भी मजबूत है । हम लोगों को लिखने पढ़ने का शऊर इसी पत्रिकाओं की देन है । यह अद्भुत है । मैं ऋणी हूँ हिंदी पत्रिकाओं का । उन कालजयी पत्रकारों का भी । पर सबसे पहले मैं अपने बाबूजी का ऋणी हूँ जिन्होंने मुझे कहा ,पढ़ो ,जितना पढ़ना चाहते हो । हमारे लिए जिन्होंने पत्रिकाओं की ढ़ेर लगा दी घर में और हम खो गए ज्ञान , सूचना और मनोरंजन की एक सतरंगी दुनिया में ।
दिल से आभार हिंदी पत्रकारिता को ।
बधाई सभी को !
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
30 मई ,2020
पटना

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