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कीटों के घर

by Dr Shambhu Kumar Singh

कीटों के घर !

वाओ…मेरी बेटी ने कहा ! बड़ी बेटी है यह । बी आई टी ,मेसरा से आर्किटेक्ट ! आंखों में खुशी और आश्चर्य ! मैंने उससे पूछा क्या तुम्हें कीटों या चिड़ियों के आर्किटेक्चर के बारे में पढ़ाई गयी है ? वह बोली नहीं !
वह एक छोटी बच्ची सी प्रफुल्लित इसे देख रही है!
यह घर मेरे बालकनी में बना है आजकल । किसी कीट का घर है । बचपन में दादी बोलती थी कि कुम्हरा ने घर बनाया है। वया हुई दर्जी चिरई । बुलबुल को वह धोबिनिया बोलती थी । कौवे को हज्जाम !
तो यह कुम्हरा का बनाया घर है । असली में इस कीट का नाम न दादी को मालूम था न मुझे है । पर हमलोग इस कीट के रहनसहन से वाकिफ़ थे । दादी भी । हमारे घर ऐसे कीटों के घर द्वार से आबाद रहता था! एक सहअस्तित्व की भावना थी । दीवाली की सफाई के दौरान भी इन घरों को नहीं तोड़ा जाता था । बल्कि विशेष हिदायत हुआ करती थी मजदूरों को कि इनके घरों को नहीं तोड़ा जाए !
हम जैव विविधता को अनजाने ही बढ़ावा देते थे । मानवीय भाव में दया और सह अस्तित्व की भावना बहुत ही प्रबल होती है । वह भावना कमजोर ही नहीं विलुप्त हो गयी है अब ! हम शहरी जो हो गए हैं! पर यह कुम्हरा कीट मुझे शहरी होने से रोक रहा है । बार बार गांव की ओर लौटा रहा है ।
स्वागत है रे कुम्हरा, बचपन की मीठी यादों और दादी की सुनहरी बातों को पुनः जीवन में घोलने केलिये !
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©डॉ. शंभु कुमार सिंह
30 जुलाई ,20
पटना
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प्रकृति मित्र

Prakriti Mitra

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