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एक थी मुनमुन

by Dr Shambhu Kumar Singh

एक थी मुनमुन !

अचानक ही खुशी दुख में बदल गई थी । गाय बछिया जनी थी पर उसे जन्म देते ही चल बसी । घर पर नौकर चाकर तो थे पर सभी बेबस ! मेरी माँ भी तब खेती (फार्म हाउस ) पर ही थी । कुछ ही पल जन्म ली बछिया खड़ी हो गयी और अपनी माँ को ढूंढ रही थी । मेरी माँ उदास । माँ मेरी किसान परिवार से ही थी । भले ही चैपमैन गर्ल्स स्कूल से पढ़ाई की थी पर घरेलू कार्यों में बड़ी ही सिद्धहस्त थी । सबसे बड़ी बात यह कि विपत्ति में भी हिम्मत नहीं हारने वाली । तो इस विपत्ति में भी वह बछिया को बचाने को लग गयी । नौकरों को एक साइकिल का ट्यूब लाने को बोली और तत्काल दूसरी गाय का दूध उसमें डाल उसे पिलाया गया ।
नौकर तो नौकर जैसे ही काम करते थे तो माँ ही उस बछिया पर ध्यान देती । उसकी विछावन माँ के ही पलंग के नीचे एक बोरा और कुछ पुआल बिछा कर लगा दी गयी । माँ समय पर जागरूक हो उसके खाने पीने का हिदायत रखती । बल्कि खुद ही उसे ट्यूब से दूध दे देती । बछिया जिसे बाबूजी मुनमुन नाम दे दिए थे , केलिये माँ अब मेरी माँ ही थी । जहाँ जहाँ माँ जाए ,वह भी चली जाए । सोने नियमित माँ के पलंग के निकट बिछे पुआल पर । वह गोहाल में आम गायों के बीच जाती ही नहीं थी । बस मेरी माँ के साथ रहती थी । कभी कभी उछल कूद में, लाड़ प्यार में माँ को गिरा भी दे । मेरी माँ 70 साल की और मुनमुन तो नासमझ छह महीने की बछिया । कि जो प्यार जताए माँ से कि माँ कभी कभी परेशान । मुनमुन के लिये उसकी माँ मेरी ही माँ थी । बाबूजी को भी मुनमुन अपना ही समझे। माँ बाबूजी भी खाने के पूर्व उसे रोटियां देते । क्या मजाल कि बिना खिलाये खा लें ! मुनमुन अब बड़ी भी हो गई थी और बलिष्ठ भी क्योंकि उसे रस्सी से बांधा नहीं जाता था । घर के बगल में करीब पचास एकड़ जमीन । मुनमुन अपने मन की राजकुमारी ! जो जी में आये ,खाये,पिये। मूंग की फसल हो या मकई की ,नौकरों का भी मजाल नहीं कि मुनमुन को खेत से निकाल दे । तो मुनमुन इस तरह बड़ी हुई । कभी कभी बहुत खुश हो तो दूर से दौड़ती आये और बाबूजी को धक्का दे भाग जाए । इधर बाबूजी चारो खाने चित । नौकर सब दौड़े । बाबूजी बोलते कि जाने दो नहीं बांधों । एक बार बांध भी दी गई । फिर तो वह खूंटा ही उखाड़ दे । एक बार बाबूजी की चौकी में उसे बांध दी गई । और परिणाम यह कि मुनमुन चौकी को ही दूर तक खिंचती चली गयी । बाबूजी तो बाल बाल बचे ! मुनमुन किसी की भी बात नहीं माने । पर जब कभी माँ बाबूजी उसे पुकारे तो तुरंत दौड़ती चली आती । डांटते तो समझती भी । मुनमुन दौड़ती तो पुंछ उठा के ऐसे कि लगे ओलंपिक में दौड़ रही है । उसे कभी मार नहीं पड़ी । माँ की प्यारी बाछी थी तो किसकी हिम्मत ! मुनमुन कभी अपने समुदाय में नहीं मिल सकी । अन्य गायें, बछड़ें उसके साथ खेले जरूर पर वह हम लोगों का साथ कभी छोड़ी नहीं । मुनमुन माँ के साथ केवल रोटी ही न खाए वरन चाय भी पिये । बिस्कुट भी खाए । रेडियो भी सुने । सब जानवर के लिये घूरा लगाया जाए पर वह माँ के साथ अलाव के निकट बैठी रहे । तीनचार आदमी और एक मुनमुन अलाव घेरे ताप रहे हैं । माँ कभी कभी उसे डांटे भी क्यों कि मुनमुन उसी जगह गोबर भी कर दे । पर किया क्या जाए ?
मुनमुन हम लोगों को छोड़ कर जाने को तैयार नहीं । माँ कहीं बाहर जाए तो उससे छुप कर । नहीं तो वह भी साथ हो ले ले । जब बहुत देर बाद माँ बाबूजी घर आवें तो मुनमुन की खुशी देखते बनती थी ! वह कूद कूद कर नाचे । क्या क्या न बोले ? भाँ भाँ….! हमलोग भी उसे स्वीकार कर चुके थे । हम लोगों की भी वह दुलारी हो गयी थी । बड़ी हो जाने के कारण उससे हमें कुछ परेशानी भी हो पर माँ और बाबूजी की सख्त हिदायत थी कि उसे तंग नहीं करना है ।
फिर एक दिन मुनमुन माँ भी बनी । उसके बच्चे भी हुए । वह खूब दूध देती थी । उसके बच्चे भी बहुत प्यारे । अब उसे दूसरी जगह सुलाया जाने लगा । पर अभी भी रस्सी से नहीं बंधी रहे । मुनमुन खुद माँ बन गयी थी पर हमलोगों को नहीं भूली थी । अपने बच्चे से समय निकाल हम लोगों से मिलने आ ही जाती । कभी कभी बच्चे संग तशरीफ लाती । माँ से उसका प्यार और लगाव खत्म नहीं हुआ था ।
माँ जब बीमार हो पूर्णिया जाने लगी तो मुनमुन बहुत दूर तक उसके पीछे पीछे चली । हालांकि मुनमुन को नौकर लौटा के ले आये । माँ फिर कभी घर नहीं लौटी । हमलोगों की जिंदगी सूनी हो चुकी थी । मुनमुन भी शायद समझ गयी थी कि माँ अब नहीं रही । पर पता नहीं , बार बार माँ के बिछावन के नजदीक वह क्यों आती थी ?
कुछ दिनों पूर्व वह मुनमुन भी हमलोगों को छोड़ चली गयी !

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डॉ. शंभु कुमार सिंह
पूर्णिया/पटना

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