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पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ

by Dr Shambhu Kumar Singh

मैं और परीक्षा

मैं पढ़ाई में ठीक ठाक ही था । कहें तो थोड़ा तेज था । इसे समझदार भी कह सकते हैं । दिमागी आई क्यू ठीक ठाक । कुछ ऊंचा । पर असाधारण नहीं ।
गांव से ही स्कूलिंग हुई । गांव के ही एक मास्टर साहब सुबह शाम पढ़ा भी देते थे । बिजली थी नहीं । लालटेन में पढ़ते थे ।
स्कूल में फर्स्ट आते थे । रिजल्ट के दिन फूल माला ले कर जाते थे । पांचवी तक । बाद में हॉस्टल चला गया । रिजल्ट फर्स्ट ही आता था । तो अब वैसी कोई उत्सुकता नहीं रह गयी थी । बल्कि सेकेंड भी हो तो कोई चिंता नहीं । न मुझे ,न घर के लोगों को ।
बहुत तनाव में नहीं पढ़ा । न रिजल्ट का कोई केयर किया । जो हो ,वाह वाह ! बाबूजी तो पूछते भी नहीं थे ,क्या रिजल्ट हुआ ?
मेरे एक साथी को कमजोर रिजल्ट होने पर मार लग जाती थी । वह बोलता था ,आज तो मुझे मार लगेगी । डरा सा ही घर जाता । कभी कभी अच्छी कुटाई हो जाती । हालांकि वह एक बेहतरीन विद्यार्थी था । कुछ मामले में मुझसे बेहतर । पर मुझसे कम नम्बर आने पर चाचा को बहुत ही नागवार गुजरता और उस दिन उसकी शामत आ जाती ।
मैं पढ़ाई में रेगुलर नहीं था । जब मन हुआ पढ़ा ,या नहीं पढ़ा । ट्यूशन भी लगभग नहीं । बोर्ड का सेंटअप एग्जाम हुआ नवंबर में । मुझे अंग्रेजी में 28 आया ।मतलब पास भी नहीं ! हेडमास्टर मुझे बुलाये और कहे ,तुम से ऐसी आशा नहीं थी । बस ,और कुछ नहीं कहा उन्होंने । पर मुझे सेंटअप कर दिया!
अंग्रेजी ही कमजोर ? मैं अब पूर्णिया आ गया । तीन महीना अंग्रेजी का ट्यूशन पढ़ा । गर्ल्स स्कूल के राम दयाल बाबू पढ़ाना शुरू किए ! एक घण्टा रोज । मार्च से परीक्षा । बोर्ड में वह भी बिहार बोर्ड में 83%आया । अंग्रेजी में इतना मार्क्स आना बहुत बड़ी बात थी । इस रिजल्ट को देख लगा कि मैं अगर ध्यान से पढूं तो अच्छा कर सकता हूँ । पर नहीं सुधरा ! पर यह तो तय हो गया कि 28 को एकदम ही उलट 82 या उससे ज्यादा किया जा सकता है ! तो जीवन कभी कम भी आये मार्क्स तो घबराना नहीं चाहिए। रिजल्ट को पलट दो जैसे मैंने किया !
हालांकि हमारा जमाना तो वह था जब 70 % आये तो बोर्ड में लोग टॉप कर जाते थे । अब तो 97 – 98 को भी सामान्य मानते हैं । हमलोगों के जमाने में 97 – 98 जब कोई बोले तो उसका मतलब बुखार ही होता था ! इतने मार्क्स का तो सपना भी नहीं आता था । तो वह थी हमलोगों की पढ़ाई ! कोई टेंशन नहीं । न डिप्रेशन का डर और न बाबूजी से पिटाई का डर । आत्महत्या का सवाल ही नहीं था । फेल भी हो जाते तो पार्टी होती ,आत्महत्या क्यों ?
हमने अपने बच्चों को भी इसी तरह पढ़ाया । मेरी पत्नी को बच्चों की पढ़ाई का बहुत टेंशन । रोज तोता जैसा रटा रही है । एक बड़े पब्लिक स्कूल में एल के जी में एडमिशन के लिये ऐसे परेशान कि लगा अगर एडमिशन नहीं होगा तो उसका पैदा होना ही व्यर्थ हो जाएगा ? पर मैं ? मैं तो घोड़ा बेच सोया रहता था । पत्नी बोलती थी, आप एकदम चिंतिंत नहीं हैं ? तो मैं कहता ,क्या चिंता करें? तो बोलती ,कैसे पिता हैं आप जी ,कोई चिंता नहीं ?
चिंता से कोई नहीं पढ़ता ! अगर ऐसा होता तो सब चिंतित के बच्चे टॉप करते ! बच्चों की पढ़ाई उनकी योग्यता से होती है । हाँ ,स्कूल,वातावरण, संसाधन, गार्जियन की सजगता और बच्चों की लगनशीलता अच्छे परिणाम देगी । यह नहीं तो कितना भी कूद फांद लो कुछ नहीं होने को है !
तो बेकार चिंता नहीं करना है ! पढ़ाई की अवधारणा अब बदल रही है । याद कितना है यह भी जरूरी नहीं । समझ कितना रहे हो और उसे जीवन में इम्प्लीमेंट कितना कर रहे हो ,यह बहुत जरूरी है ! और पढ़ भी रहे हो तो क्यों ,यह तो और भी जरूरी है !
तो जितना मार्क्स आये ,सेलिब्रेट करो । एक से ही इक्कीस होता है । चलो खुश रहो ,आज एक तो आया ,कल इक्कीस भी आ जायेगा । और नहीं भी आया तो ग्यारह तो आएगा ही !
तो ग्यारह ही क्या बुरा है ?
मौज कर यार !
खेल खेल कर पढ़ ,
पढ़ पढ़ कर खेल !
??
?
डॉ. शंभु कुमार सिंह
15 जुलाई ,20
पटना

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