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अपना अपना भाग्य

by Dr Shambhu Kumar Singh

अपना अपना भाग्य

माँ बोलती थी कि मेरे जन्म के कुछ दिनों बाद वह लकवाग्रस्त हो गयी थी । एक तरफ के हाथ,पैर निर्जीव । बड़े बड़े डॉक्टरों से दिखलाया गया ।
मैं तब आठ महीनों के आसपास का रहा होऊंगा । माँ के बीमार रहने पर मुझे माँ का दूध तो नहीं ही मिला ,अन्य आहार भी ठीक से नहीं मिलता था । माँ पटना के पॉपुलर नर्सिंग होम में भर्ती थी । मेरी देखभाल हेतु दो लोग वहाँ थे । एक गराही का बलिराम शरण और दूसरा चिकनी कामत का शिबू मुनि । एक आदमी हर हमेशा मुझे गोद में लिए खेलाते रहता था । मुझे ही ठीक ठाक से देखने को ये दो लोग पटना लाये गए थे ।
कुछ दिनों बाद दादी बाबूजी को बोली कि शंभु को गाँव भेज दो । कारण कि गांव में ही पड़ोस में एक चाची थी । उनको मेरे ही उम्र का बेटा भी था । वह भी बोली कि शंभु यहाँ गाँव आ जायेगा तो उसे मैं दूध पिला दिया करूंगी । हार कर बाबूजी मुझे गाँव ले गए ।
गाँव में चाची मुझे गोद में ली । बहुत प्यार से दूध पिलाने की कोशिश की । पर मैं दूध पीने से इनकार कर दिया । आठ महीने के बच्चे को क्या ज्ञान पर वह ईश्वर के प्रति मेरा पहला विद्रोह था । मैंने उन्हें कहा अगर अपनी माँ का दूध नहीं देना चाहते हो तो इनका दूध भी नहीं पियूँगा । जैसा नसीब दिए हो स्वीकार है । पर बाद के दिनों में उस चाची को मैं माँ से नीचे कभी नहीं समझा । माँ जैसा ही सम्मान दिया !
दादी ,बुआ सभी ने किसी तरह से पाला मुझे । वह यह सोच भी दुखी रहती कि मैं माँ के रहते बिना माँ का बच्चा था !
अब मैं खड़ा होने लगा था । उम्र मेरी डेढ़ बरस की हो गयी थी । लंबे बाल । कमर में काला धागा जो डारा कहलाता था । उसी में मल्लाह के जाल से निकाला हुआ लोहे का एक छल्ला,एक तांबे का पैसा गूंथा हुआ था । शरीर दुबला पतला , पेट सामान्य से ज्यादा बड़ा । जैसे कि कुपोषित बच्चों के होते हैं । बूढ़ी दादी अपने से जितना हो पड़ा अपने इकलौते पोते के लिए कर ही रही थी पर ईश्वर को मंजूर नहीं था कि मैं ठीक ठाक रहूँ । स्वस्थ अस्वस्थ रहते घर की मिट्टी में खेलते दिन कट ही रहे थे ।
एक दिन वह भी आया जब माँ पटना से गाँव लौट आयी । वह अब थोड़ी थोड़ी स्वस्थ हो रही थी । माँ जब दरवाजे पर आई तो देखी कि मैं अकेले खड़ा हूँ ।शायद किसी का इंतजार कर रहा होऊँ? कुछ देर तो अपलक हम दोनों एक दूसरे को देखते रहे ! फिर माँ मुझे गोद उठा जो रोना शुरू की उसे शब्दों में बांधना सम्भव नहीं ! मैं उसके आंसुओं से नहा गया था!
मेरे बड़े होने पर भी मेरी माँ को यह दुख हमेशा रहा कि मेरा बचपन उससे दूर रहा ! उसकी आंखें बाद में भी भींगती रही इन बातों को याद कर पर मैं मुस्कुरा कर उसे बोलता था जाने दो माँ , किस्मत के लेख पर किसी का वश नहीं । हाँ जितना संघर्ष करना था हमने किया ,यही संतोष की बात है !
आज भी बहुत प्रयास करने के बाद भी हमें कुछ नहीं मिलता तो मैं मायूस नहीं होता हूँ। खूब मुस्कुराता हूँ । इस तरह भाग्यविधाता को कहता हूँ , उन्हें जो करना है कर ले पर देखो मैं मुस्कुरा रहा हूँ !
मिस यू माँ !
?
डॉ. शंभु कुमार सिंह
12 जुलाई ,20
पटना ।

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